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________________ विसर्जनरूप विशुद्ध-भाव को ही उत्पन्न करता है, इसलिए वह उत्कृ ट दान भी होता है। इसमें वह सब कुछ तो गुरुचरणों में समर्पित कर देता है। आचार्य हरिभद्र ने बत्तीसवीं गाथा में कथन किया है कि यदि गुरु को आत्म-समर्पण वाला शिष्य मिलता है, तो गुरु को शिष्य-सन्तानों के विषय में अधिकरण-दोष नहीं लगता है। गुरु ममत्व-रहित होता है, अतः दीक्षित शिष्य के परिणामों की विशुद्धि के लिए जिज्ञासा के अनुरूप ही प्रवृत्ति करता है। यदि शिष्य गुरु के प्रति समर्पित न हो और उसे दीक्षित कर दिया हो, तो गुरु के हर हितकारी वचन उसके लिए क्लेश के ही हेतु होते हैं, अतः शिष्य का गुरु के प्रति समर्पित होना अत्यंत आवश्यक है, जिससे गुरु-शिष्य के बीच कोई भी प्रवृत्ति क्लेश का हेतु न बने तथा गुरु-शिष्य भी परस्पर सहयोग से संयम-आराधना में एक-दूसरे के शुभ निमित्त (हेतु) बनते रहें। आचार्य हरिभद्र प्रस्तुत अध्याय की तैंतीसवीं गाथा में गुरु के दायित्व को स्पष्ट करते हुए कहते हैं दीक्षाविधि समाप्त होने पर गुरु को नवदीक्षित की मनःस्थिति पढ़ लेना चाहिए। नूतन दीक्षित की धर्म के प्रति अभिरुचि में जिस प्रकार भी वृद्धि होती है, गुरु को उसी प्रकार उस दीक्षित को दान, सेवा, स्वाध्याय, ध्यान आदि का उपदेश देने का प्रयत्न करना चाहिए। जो गुरु शिष्य की भावनाओं का भी ध्यान रखता है और उसकी भावना के अनुसार उस शिष्य को धर्म की ओर भी प्रेरित करता है, तो यह बात गुरु के गीतार्थ होने की द्योतक है। आचार्य हरिभद्र चौंतीसवीं गाथा में दीक्षा प्रदान करने के योग्य शिष्य के विषय में कहते हैं दीक्षित होने वाला शिष्य सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र से युक्त होना चाहिए एवं बाह्य भौतिक-पदार्थों से निस्पृह होकर आगमानुसार देव, गुरु, धर्म के 1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 2/33 – पृ. 2 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 2/34 - पृ. सं. 3 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-2/35 - पृ. सं. - 32 398 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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