________________
मोक्ष के राजमार्ग पर चलने के लिए उद्धृत हो गए हो। वास्तव में तुम साधना के मार्ग पर चलकर साध्य पाने के योग्य हो आदि। यह विधि सम्पूर्ण होने के पश्चात् अब शिष्य गुरु को आत्म-निवेदन करता है, जिसका वर्णन आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत पंचाशक की उनतीसवीं गाथा में प्रस्तुत किया है
शिष्य गुरु को तीन प्रदक्षिणा करके सम्यग्दर्शन से युक्त शुद्ध अन्तःकरण से गुरु से इस प्रकार नम्र निवेदन करता है- मैं आपके प्रति पूर्णतः समर्पित हूँ, अर्थात् मैं अपने मन को आपके चरणों में समर्पित करता हूँ। आप मेरे जैसे अज्ञानी को भव-समुद्र से तिराने में परम सहयोगी हैं, आप मेरे जीवन-उत्थान के पथ प्रदर्शक हैं। इस प्रकार, गुरु के अनन्य उपकार को मानते हुए दीक्षार्थी अपने गुरु के प्रति अपनी दृढ़ आस्था को प्रकट करता है। आत्म-निवेदन का महत्व- आचार्य हरिभद्र पंचाशक-प्रकरण की तीसवीं गाथा में आत्म-निवेदन का महत्व बताते हुए लिखते हैं
__ भव-विशुद्धि से दृढ़ हुई गुरुभक्ति आत्मोत्कर्षक की हेतु है। यह आत्म-समर्पण उत्कृष्टतम दान है। भाव-विशुद्धि से दृढ़ हुई भक्ति के अभाव में धर्म केवल बीजरूप है।
___ आचार्य हरिभद्र ने आत्म–निवेदन के महत्व को बताते हुए आत्म-निवेदन के कारण को भी एकतीसवीं गाथा में स्पष्ट किया है
___ यह आत्म-समर्पण हर कोई नहीं कर सकता है। उत्तम पुरुष ही यह आत्म-समर्पण कर सकता है। अयोग्य पुरुष तो किसी के द्वारा किए जा रहे आत्म-निवेदन का श्रवण भी नहीं कर सकता है, फिर वह आत्म-समर्पण तो क्या करेगा ? अतः, आत्म-अनुवेदन करने वाला शिष्य ही योग्य है, इसलिए विशुद्धभाव सहित आत्म-अनुवेदन (आत्म-समर्पण) उत्तम पुरुष के आचरण का अंग होने से वह अहम्
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-2/30 - पृ. सं. - पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 2/31 - पृ. सं. - 30 3 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 2/32 - पृ. सं.
397
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org