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द्वारा टीका उपलब्ध है। इस ग्रन्थ में योग-साधना की विधि का संक्षेप में वर्णन कर आध्यात्मिक-विकास की उत्तरवर्ती अवस्था का निरूपण किया गया है। इसमें चारित्रशील साधक को ही योग का अधिकारी कहा गया है, मोक्ष से जोड़ने वाली धर्म-साधना को योग कहा गया है तथा योग की पाँच भूमिकाएँ बताई गई हैं- 1. स्थान 2. उर्ण 3. अर्थ 4. आलम्बन और 5. अनालम्बन। योग के इन पाँच भेदों का वर्णन इससे पूर्व किसी ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होता है, अतः यह आचार्य हरिभद्र की अपनी मौलिक रचना है। कृति के अन्त में इच्छा, प्रकृति, स्थिरता और सिद्धि- इन चार योगांगों एवं कृति, भक्ति, वचन और असंग- इन चार अनुष्ठानों का वर्णन है। तत्पश्चात्, चैत्यवन्दन की क्रिया का भी उल्लेख है। योगशतक
आचार्य हरिभद्र की यह योग सम्बन्धी रचना है, जिसमें 101 गाथाएं हैं। यह कृति प्राकृत में है। इस ग्रन्थ के आरम्भ में व्यवहार एवं निश्चय-दृष्टि से योग के स्वरूप का विश्लेषण किया गया है। तत्पश्चात्, आध्यात्मिक-उत्थान के उपायों को बताया गया है। ग्रन्थ के उत्तरार्द्ध में चित्त को एकाग्र करने के लिए, अपने विकल्पों के प्रति सचेत रहने के लिए निर्देश दिया गया है तथा चित्त की चंचल वृत्तियों के विलोकन करने की बात कही गई है। ग्रन्थ के अन्त में योग से उपलब्ध लब्धियों की चर्चा की गई है। योगदृष्टि-समुच्चय
आचार्य हरिभद्र की यह कृति जैन योग की एक महत्वपूर्ण रचना है। यह रचना संस्कृत में है। इसमें 227 पद्य हैं। इस कृति में सर्वप्रथम योग की तीन भूमिकाओं का उल्लेख है
1. दृष्टियोग 2. इच्छायोग और 3. सामर्थ्ययोग।
दृष्टियोग में आठ योगदृष्टियों का विस्तार से विश्लेषण किया गया है। आठ दृष्टियाँ निम्न हैंमित्रा, तारा, बला, द्वीपा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा।
प्रस्तुत ग्रन्थ में अचरमावर्त्तकाल एवं चरमावर्त्तकाल का वर्णन करते हुए अचरमावर्त्तकाल को ओघदृष्टि एवं चरमावर्तकाल को योग-दृष्टि कहा गया है। इसमें योग के अधिकारी जीव को तीन विभागों में विभक्त किया है।
प्रथम विभाग में आठ दृष्टियों के विषय में विस्तृत व्याख्या है। दूसरे विभाग में जैन-परम्परानुसार चौदह गुणस्थानों के क्रम का वर्णन है। इसके अतिरिक्त योग के तीन निम्न विभाग कर उनका विस्तृत वर्णन किया गया है
___1. इच्छायोग 2. शास्त्रयोग और 3. सामर्थ्ययोग। तृतीय विभाग के योगी को चार भागों में बांटा है- 1. गोत्रीयोगी 2. कुलयोगी 3. प्रवृत्तचकयोगी और 4. सिद्धयोगी
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