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समवायांगसूत्र के अनुसार उपासक का शंकादि दोषों से रहित निर्मल, सम्यग्दर्शन को धारण करना दर्शन-प्रतिमा है।'
रत्नकरण्डक-श्रावकाचार में अतिचाररहित शुद्ध सम्यग्दर्शन से युक्त संसार, शरीर और इन्द्रियों के भोगों से रहित, पंच परमेष्ठी की शरण को प्राप्त, तात्त्विक-सन्मार्ग को ग्रहण करने वाले को दार्शनिक-श्रावक कहा है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में इसे दूसरा स्थान देकर कहा गया है- जो अनेक त्रस जीवों से भरे हुए मांस-मद्य का सेवन नहीं करता है, वह दार्शनिक-श्रावक है।
उपासकाध्ययन में सम्यग्दर्शन के साथ आठ मूल गुणों का पालन करने को दर्शनप्रतिमा-धारक बताया है।
__ अमितगति-श्रावकाचार में पवित्र और निर्मल दृष्टि को हृदय में धारण करना दर्शन-प्रतिमा है।' वसुनन्दि-श्रावकाचार में पांच उदुम्बरों सहित सात कुव्यसनों के त्यागी को दार्शनिक-श्रावक माना है।
___ इन सभी के मतानुसार यही तथ्य स्पष्ट होता है कि - जो दर्शन-प्रतिमाधारी-श्रावक-आगम-वाक्यों पर दृढ़ श्रद्धा रखता है, शंका, कांक्षा आदि अतिचारों से रहित होता है, सुदेव, सुगुरु और सुधर्म पर सम्यक् श्रद्धा न रखता हुआ उनकी आज्ञा का पालन करता है, अभक्ष्य, अनन्तकाय आदि का त्याग एवं सप्तव्यसनों से जो मुक्त होता है, वही सही रूप में सम्यग्र्शन से युक्त दर्शन-प्रतिमाधारी श्रावक होता
है।
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के प्रस्तुत पंचाशक की चतुर्थ गाथा में सम्यग्दृष्टि के शरीर को दर्शन-प्रतिमा कहा है, जिसका समाधान आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के प्रस्तुत अध्ययन की सातवीं गाथा में किया है
बोंदी य एत्थ पडिमा बिसिठ्ठगुण जीवलोगओ भणिया। ताएरिसगुणजोगा सुहो उ सो खावणत्यत्ति।।'
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