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होइ अणाभोगजुओण विवज्जयवं तु एस धम्मम्मि ।
अत्थिक्कादिगुणजुत्तो सुहाणबंधी णिरतियारो।। दर्शन-प्रतिमा वाला जीव ज्ञानावरणीय कर्मों के उदय से श्रुत-चारित्ररूप धर्म में कुछ अज्ञानी हो सकता है, किन्तु विपरीत अवधारणा वाला नहीं हो सकता है, क्योंकि वह कदाग्रह से रहित होता है। दर्शन-प्रतिमा का धारक श्रावक आस्तिक्य, अनुकम्पा, निर्वेद, संवेग और प्रशम – इन पांच गुणों से युक्त होता है, साथ ही शुभानुबंध से युक्त और शंकादि अतिचारों से रहित होता है। दर्शन, अर्थात् दृष्टि-व्यक्ति में आध्यात्मिक विकास के लिए सम्यग्दृष्टि का होना अनिवार्य है। सम्यग्दृष्टि से तात्पर्य है- सुदेव, सुगुरु और सुधर्म के प्रति दृढ़ श्रद्धा। उपासकदशांगसूत्र में आनन्द श्रावक ने प्रथम उपासक-प्रतिमा को यथासूत्र, यथाकल्प, यथामार्ग एवं यथातथ्य-शरीर के द्वारा स्वीकार किया, पालन किया, शोधन किया एवं आराधना की।
पढमं उवासगपडिमं अहासुत्तं, अहाकप्पं, अहामग्गं, अहातच्चं ।
सम्म काएणं फासेइ, पालेइ, सोहइ, तिरेइ, किहेइ आराहेर।।' उपासकदशांगसूत्रटीका में चारित्र आदि शेश गुण नहीं होने पर भी सम्यग्दर्शन का शंका, कांक्षा आदि पांच दोषों से रहित होकर सम्यक् रूप से पालन करना दर्शन-प्रतिमा कहा है। दशाश्रुतस्कंध में दर्शन-प्रतिमा का स्वरूप इस प्रकार कहा है- क्रियावादी मनुष्य सर्वधर्म रुचि' वाला होता है, परन्तु शीलव्रत एवं गुणव्रतों को सम्यक् रूप से धारण नहीं करता है।
3 उपासकदशांगसूत्र – म. महावीर- 1/70 – पृ. - 67 1 उपासकदशांगटीका - आ. अभयदेवसूरि- 1/70 - पृ. - 68 दशाश्रुतस्कंधटीका - आ. अभयदेवसूरि - 6/8 - पृ. - 445 समवायांगसूत्रटीका - आ. अभयदेवसूरि- 11/1 - पृ. - 29 रत्नकरण्डक-श्रावकाचार - स्वामी समन्तभद्र-1/2 5 कार्तिकेयानुप्रेक्षा - स्वामी कार्तिकेय -27 'उपासकाध्ययन - आ. सोमदेव - 821 अमितगति-श्रावकाचार - आ. अमितगति -1/67 वसुनन्दी-श्रावकाचार - आ. वसुनन्दी - पृ. सं. - 205
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