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________________ यह कहा जाता है कि सामायिक एवं पौशध में श्रावक श्रमण जैसा होता है यदि सामायिक व पौषध में श्रावक-श्रमण जैसा होता है, तो पौषध में श्रावक को आहार आदि की छूट होना चाहिए ? क्योंकि साधु भी तो आहार आदि करता है। इस बात को इस प्रकार समझें – पहली बात तो साधु के लिए शरीर-सत्कार का सर्वथा त्याग है। अब्रह्म का सर्वथा त्याग है एवं सावद्य-व्यापार का सर्वथा त्याग है, आहार की छूट है। यह छूट इसलिए है कि साधु जीवन-पर्यन्त के लिए बना होता है। वह एक, दो, आठ या दस दिन, अथवा एक महीने आदि के लिए नहीं बना है, अतः आहार के बिना वह अपनी संयमयात्रा का निर्वाह नहीं कर कर पाएगा, परन्तु गृहस्थश्रावक 48 मिनट या एक दिन, आठ दिन आदि के लिए पौषध करता है, अतः उसके लिए आहार का त्याग बताया गया है। विद्यार्थी स्कूल में छ: घण्टे पढ़ता है, तो उसे एक घण्टे के लिए खेलने एवं खाने की छुट्टी दी जाती है, परन्तु जब एक घण्टा ही पाठशाला में पढ़ता है, तो उसे कोई छुट्टी नहीं दी जाती है। यदि कोई एक घण्टा, अथवा एक दिन के लिए श्रमणवत् बने, तो उसे छूट की क्या जरुरत है ? यदि खाने-पीने की चर्चा में ही रह गए, तो फिर एक दिन पौषध करने का (सावद्य से निवृत्त होने का) अर्थ क्या रहेगा ? पौषधव्रत साधु-जीवन का पूर्व अभ्यास है। यह व्रत लेने वाला श्रावक उस अवधि में साधु के तुल्य है, पर साधु नहीं है, अतः साधु की तरह गोचरी, शयन करने आदि की कल्पनाएं न करें, क्योंकि आहार के साथ निद्रा एवं विकथा भी वर्जनीय है। पौषध में स्वाध्याय व ध्यान करें, परन्तु शयन व विकथा न करें। कई लोगों की यह प्रवृत्ति होती है कि वे पौषध लेकर सो जाते हैं, खर्राटे लेते रहते हैं, ऐसा लगता है, मानो कितने ही दिनों से सोए नहीं हैं। जबकि पौषध में हमारी आराधना होनी चाहिए और हम विराधना करते हैं। पौषध में पूरे घर व समाज की पंचायत कर लेते हैं। कभी निद्रा, कभी निन्दा, कभी गुस्सा, कभी हंसी- यूं करते-करते पूरा दिन व्यतीत कर देते हैं, परन्तु आत्मा का आनन्द नहीं मिल पाता है, अतः पौषध मौन, ज्ञान, ध्यान, जप, तप, प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण, आलोचनपूर्वक करना चाहिए, जिससे लिया हुआ व्रत सुरक्षित रहे व सफल बनें। 320 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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