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तत्त्वार्थ-सूत्र के अनुसार पौषध में उत्साह-रहित होकर ज्यों-त्यों करके प्रवृत्ति करना अनादर-अतिचार है।
उपासकदशांग के अनुसार पौषध मे अशन-पान आदि चारों आहारों का त्याग, शरीर-सत्कार, वेशभूषा का त्याग, मैथून, समस्त सावद्य-व्यापार का त्याग तथा इनका स्मरण नहीं रखने की स्थिति को पौषध सम्यक्-अननुपालन-अतिचार कहा है।
तत्त्वार्थ-सूत्र के अनुसार पौषध कब करना और कैसे करना या कब नहीं करना, अथवा मैंने पौषध किया है या नहीं किया है, इत्यादि का स्मरण न रहना अतिचार
पौष + ध = पौषध। पौश का अर्थ है- गुण, 'ध', अर्थात् धारण करना। गुणों को धारण करना पौषध कहलाता है। भवरोग को मिटाने के लिए पौषध-प्रकृष्ट औषधि है।
प्रायः सभी सम्प्रदायों में पौषधोपवासव्रत शब्द प्रयुक्त है। पौषध + उपवास, अर्थात् पौषध के साथ उपवास करना, अथवा उपवास के साथ पौषध करना पौषधोपवास है। उपवास का अर्थ है- उप + वास, अर्थात् आत्मा के निकट रहना। उपवास का दूसरा अर्थ है- अनशन, अर्थात् अशन, पान, खादिम और स्वादिम का त्याग करना । उपासकदशांग में पौषधोपवास के प्रसंग में अतिचारों में पोसहोववासस्स शब्द आया है, जिससे प्रतीत होता है कि पौषध उपवास के साथ ही होता था। कालान्तर में इसके अर्थ में अन्तर आया होगा, अतः आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में पौषध को आहार, शरीर-सत्कार एवं ब्रह्मचर्य- इन तीनों की अपेक्षा से देश व सर्व- दोनों प्रकार बताया, परन्तु व्यापार को सर्वतः से बताया गया। इससे अनुमान लगता है कि आचार्य हरिभद्र ने इस व्रत को सुविधापूर्ण बनाने की दृष्टि से यह परिवर्तन किया है।
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