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अतिचार - आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में देशावकासिकव्रत में लगने वाले दोषों (अतिचारों) का वर्णन किया है
वज्जइ इह आणयप्मप्पओग पेसप्प ओगयं चेव। सद्दाणुरुववायं तह बहिया पोग्गलक्खेवं ।।
देशावकासिकव्रत में लगने वाले पांच अतिचारों का इस पंचाशक की अट्ठाइसवीं गाथा में वर्णन किया गया है। श्रावकों को प्रेरणा देते हुए कहा गया है कि इन अतिचारों का त्याग करें। समझने एवं त्याग करने योग्य पांच अतिचार ये हैं- 1. आनयन-प्रयोग 2. प्रेष्य-प्रयोग 3. शब्दानुपात 4. रुपानुपात और पुद्गल-प्रक्षेप।
1. आनयन-प्रयोग- पंचाशक-प्रकरण के अनुसार सीमित क्षेत्र से बाहर की वस्तु की आवश्यकता पड़ने पर उसे दूसरों को आदेश देकर मंगाना आनयन-प्रयोग –अतिचार है।'
उपासकदशांगटीका के अनुसार जितने क्षेत्र की मर्यादा की है, उससे बाहर की वस्तुएँ अन्य व्यक्ति से मंगवाना आनयन-प्रयोग–अतिचार है।'
तत्त्वार्थ-सूत्र के अनुसार जितने प्रदेश का नियम लिया हो, आवश्यकता पड़ने पर स्वयं न जाकर भी संदेश आदि के द्वारा दूसरों से उसके बाहर की वस्तुएँ मंगवा लेना आनयन–प्रयोग–अतिचार है।
चैत्यवन्दनकुलक के अनुसार नियमित सीमा से बाहर की वस्तु मंगाना या स्वयं वहाँ जाकर ले आना, अथवा नौकर आदि को भेजकर मंगा लेना आनयन-प्रयोग अतिचार है। यहाँ सभी मत पंचाशक के अनुसार ही हैं।
1 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1/28 - पृ. - 11 1 उपासकदशांगटीका - आ. अभयदेवसूरि- 1/54- पृ. -51 - तत्त्वार्थ-सूत्र - आ. उमास्वाति-7/26 - पृ. - 189 'चैत्यवन्दनकुलकटीका – रचित श्रीजिनकुशलसूरि – पृ. - 195 4 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1/28 - पृ. - 12
उपासकदशांगटीका - आ. अभयदेवसूरि- 1/54- पृ. -51 6 तत्त्वार्थ-सूत्र - आ. उमास्वाति-7/26 - पृ. - 189
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