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परिमाण किया जाता है, वह विराट और जीवन-पर्यन्त के लिए होता है, परन्तु इस दूसरे शिक्षाव्रत में आंशिक रूप से विशेष मर्यादा निश्चित की जाती है।
देशावकासिक दो शब्दों से मिलकर बना है- देश + अवकाश। देश का अर्थ है- कुछ भाग, अंश और अवकाश का अर्थ है- खुला रखना। कुछ भाग खुला रखकर कोई नियम लेना देशावकासिकव्रत है, अर्थात् बहुत भाग से कुछ भाग की मर्यादा करना, सीमा करना, संक्षिप्त करना देशावकासिक है।
इस व्रत को संवर भी कह सकते हैं। इस व्रत में मन, वचन, काया के गमनागमन की प्रवृत्ति को सीमित करके कर्म आने के रूप आश्रव के द्वारों को बन्द करते हैं। यह बन्द करना ही संवर है और यह संवर ही निर्जरा या मोक्ष का हेतु बनता है, अतः समय-समय पर देशावकासिकव्रत ग्रहण करते रहना चाहिए व पंचाशक के अनुसार देशावकासिकव्रत को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। व्रतधारी श्रावकों का लक्ष्य तो होना ही चाहिए कि गृहस्थ-जीवन के जाल से मुक्त होकर अल्पकाल के लिए निवृत्ति के मार्ग पर चलना, जिसके फलस्वरूप हिंसादि पाप से बचा जा सके।
आचार्य हरिभद्र ने सावयपण्णति में इस व्रत का विशेष खुलासा किया है। उन्होनें प्रस्तुत ग्रन्थ की 319 वीं गाथा में सर्प व विष का उदाहरण देते हुए कहा है किजिस प्रकार सर्प का दृष्टिविष, जो पूर्व में बारह योजन परिमाण था, पीछे उसे मान्त्रिक द्वारा क्रम से उतारते हुए एक योजन में स्थापित कर दिया जाता है। इसी प्रकार श्रावक-दिग्व्रत में गृहीत विशाल देश में बहुत कुछ पाप-प्रवृत्ति कर सकता है तथा उसे देशावकासिकव्रत में सीमित कर देने के कारण अधिक पाप-प्रवृत्ति से बच जाता है। दूसरा उदाहरण विष का दिया गया है। जिस प्रकार विषैले किसी सर्प आदि के काट लेने पर उसका विष समस्त शरीर मे फैल जाता है, फिर भी मान्त्रिक अपनी मन्त्र-शक्ति द्वारा उसे क्रमशः उतारते हुए केवल अंगुली में स्थापित कर देता है, उसी प्रकार देशावकासिकव्रती दिग्व्रत में स्वीकृत विशाल देश को काल के आश्रय से प्रतिदिन संक्षिप्त करता है। ऐसा करने पर प्रमाद से रहित होने के कारण उसका चित्त भी निर्मल होता है, इसलिए प्रमाद-रहित होकर अन्तःकरण की शुद्धिपूर्वक इस व्रत का निर्दोष रूप से पालन करना चाहिए।
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