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________________ दूषित हो गई, तो सामायिक का फलशान्ति, समाधि एवं मोक्ष का जो स्वरूप है, वह प्राप्त नहीं हो पाएगा। देशावगासिकव्रत - आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के श्रावकविधि-पंचाशक की सत्ताइसवी गाथा में दूसरे शिक्षाव्रत- देशावकासिकव्रत का प्रतिपादन करते हुए बताया है दिसिवय गहियस्स दिसापरिमाणस्सेह पइदिणं जंतु। परिमाण कर मे यं अवरं खुल होइ विण्णेयं ।। दिग्व्रत में लिए हुए दिशा-परिमाण की सीमा का निर्धारण जीवन-पर्यन्त के लिए किया जाता है, जैसे- जीवन-पर्यन्त पूर्व दिशा में 1500 किमी से आगे नहीं जाने का नियम लेना। देशावकासिकव्रत में अहोरात्र, दिवस-रात्रि या प्रहर आदि के लिए गमनागमन की सीमा निश्चित की जाती है। उपासकदशांगटीका में देशावकासिकव्रत का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है कि निश्चित समय-विशेष के लिए क्षेत्र की मर्यादा कर उससे बाहर किसी प्रकार की सांसारिक-प्रवृत्ति नहीं करना देशावकासिकव्रत है। यह छठवें व्रत का संक्षेप है। इसमें साधना एक दिन-रात या उससे न्यूनाधिक समय के लिए की जाती है।' डॉ. सागरमल जैन के अनुसार इस व्रत का मुख्य उद्देश्य आंशिक रूप से गृहस्थ-जीवन से निवृत्ति प्राप्त करना है। मनुष्य स्वाभाविक रूप से परिवर्तनप्रिय है। घर-गृहस्थी के कोलाहलपूर्ण और अशान्त जीवन से निवृत्ति लेकर एक शान्त जीवन का अभ्यास एवं आस्वाद करना ही इसका लक्ष्य है। वैसे भी हम सप्ताह में एक दिन अवकाश मनाते हैं। देशावकासिकव्रत इसी साप्ताहिक अवकाश का आध्यात्मिक-साधना के क्षेत्र में उपयोग है और इस दृष्टि से इसकी सार्थकता है।' 1 उपासकदशांगटीका - आ. अभयदेवसूरि- 1/54 - पृ. -51 डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दनग्रन्थ - डॉ. सागरमल जैन - पृ. - 332 'तत्त्वार्थ-सूत्र - आ. उमास्वाति-7- पृ. - 182 *(क) रत्नकरण्डक-श्रावकाचार - स्वामी समन्तभद्र-5/12 (ख) चारित्रसार श्रावकाचार-संग्रह - चामुण्डाचार्य - पृ. - 343 (ग) अमितगति-श्रावकाचार - आ. अमितगति - 78 306 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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