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श्रावकप्रज्ञप्तिटीका के अनुसार सामायिक को ग्रहण करके शीघ्र वापस समाप्त कर देना या मनमाने ढंग से अनादरपूर्वक सामायिक करना अनवस्थितकरण -अतिचार है। यहाँ हरिभद्रसूरि ने इस अतिचार को पंचाशक-प्रकरण से विशेष रूप से स्पष्ट किया है।
चारित्रसार में भी इसका नाम अनादरपूर्वक दिया जाकर आलस्य, मोह एवं प्रमाद से युक्त होकर या बिना किसी उत्साह के सामायिक करने को अनवस्थितकरण-अतिचार के रूप में प्रतिपादित किया है।'
तत्त्वज्ञान-प्रवेशिका के अनुसार सामायिक का समय पूर्ण होने से पहले सामायिक को पूर्ण कर लेना अनवस्थितकरण अतिचार है।
सामायिक समत्व-योग की साधना है। शान्ति चाहने वाले सभी को यह सामायिक करना चाहिए, फिर चाहे वह धनाढ्य हो या दरिद्र, चाहे श्रावक हो या श्राविका, क्योंकि शान्ति एवं धैर्य पाने का यह अमोघ उपाय है। भौतिक-सुखों की उपलब्धि से शान्ति नहीं मिलती है। शान्ति तो आध्यात्मिक-आनन्द से मिलती है और आध्यात्मिक सुख सामायिक का ही है।
दो-दो घड़ी के इस अभ्यास से व्यक्ति पूर्ण शान्ति की ओर पहुँच सकता है। ऐसा सरल मार्ग और किसी भी दर्शन में उपलब्ध नहीं है।
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के माध्यम से श्रावक के बारह व्रतों के विषय का प्रतिपादन करते हुए नवम व्रत सामायिक-व्रत को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए सामायिक-व्रत को सुरक्षित रखने के लिए सामायिक-व्रत में लगने वाले पांच अतिचारों के वर्जन हेतु दिग्दर्शन दिया है कि सामायिक-व्रतधारी सामायिक के समय सम्पूर्ण रूप से ध्यान रखे कि निम्न अतिचारों के द्वारा सामायिक दूषित न हो जाए। यदि सामायिक
। पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1/27 – पृ. - 11
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