________________
का परिभ्रमण बन्द कर देना चाहिए, जिससे पूर्ण स्थिरता (मुक्ति) की ओर प्रगति हो सकती है।
पंचाशक-प्रकरण में आचार्य हरिभद्र ने स्पष्ट कहा है कि अणुव्रतों की रक्षा के लिए एवं हिंसादि पापों से बचने के लिए दिग्परिमाणव्रत अवश्य धारण करें एवं उसका सम्यक् प्रकार से पालन करें। यह ध्यान रखें कि कहीं व्रत में दोश न लग जाए, इस हेतु सदा जागरुक रहें। भय व लालच से व्रत दूषित हो जाते हैं, व कभी-कभी भंग भी हो जाते हैं, अतः अतिचारों से बचते रहना चाहिए। जिन दोषों से बचना है, उन दोषों का विवरण आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के प्रथम अध्याय की बीसवीं गाथा में किया है।' छठवें व्रत में परिमाण-क्षेत्र के अतिरिक्त त्यक्त-क्षेत्र में दूसरे व्यक्ति द्वारा कोई वस्तु भेजने अथवा मंगाने का त्याग करके उर्ध्वदिशा-परिमाणातिक्रम, अधोदिशापरिमाणातिक्रम और तिर्यग्दिशा-परिमाणातिक्रम तथा क्षेत्रवृद्धि और स्मृति–अन्तर्ध्यान- इन पांच अतिचारों का त्याग करना चाहिए। उर्ध्वदिशा-परिमाणातिक्रमण- पंचाशक-प्रकरण के अनुसार ऊपर जाने के लिए जितना क्षेत्र आपने निर्धारित किया है, त्रुटिवश उससे ज्यादा ऊपर चले जाने पर व्रत दूषित हो जाता है। जानबूझकर उस सीमा का उल्लंघन करने पर व्रत भंग हो जाता है।154
उपासकदशांगटीका में अभयदेवसूरि ने ऊँचाई की ओर जाने की मर्यादा के अतिक्रमण को उर्ध्वदिशापरिमाणातिक्रमण कहा है।'
___ योगशास्त्र की स्वोपज्ञ-टीका में आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है- ऊँचे पर्वत, वृक्ष, शिखर पर जाने का जो परिमाण स्वीकृत किया गया है, उसका उल्लंघन करना उर्ध्वदिशापरिमाणातिक्रमण है।
वज्जइ उड्ढाइक्कममाणयणप्पेसणो भयविसुद्धं ।
तह चेव खेत्तवुड्ढिं कहिंचि सइअंतरद्धं च ।। - 1/20 - पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि 154 पंचा एक प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि-1/20 - पृ. सं. - 8 1 उपासकदशांगटीका - आ. अभयदेवसूरि-1/50 - पृ. - 46 2 योगशास्त्र स्वोपज्ञविवरणिका - आ. हेमचन्द्राचार्य-3/97 3 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1/20 - पृ. - 8 4 उपासकदशांगटीका - आ. अभयदेवसूरि- 1/50 - पृ. - 46
269
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org