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________________ पंचाणुव्रतों की उपयोगिता - पंचाशक-प्रकरण में आचार्य हरिभद्र ने अणुव्रतधारी श्रावक को सम्यक् वचनों द्वारा संदेश दिया कि वह सद्गुरु के सान्निध्य में, परमात्मा की साक्षी में लिए गए अणुव्रतों की रक्षा करता रहे और इन व्रतों की रक्षा के लिए श्रावक उपर्युक्त पांच अणुव्रतों के अतिचारों का त्याग भी करे। श्रावक-जीवन में इन पांच अणुव्रतों का महत्व है। आध्यात्मिक, नैतिक व धार्मिक जीवन जीने में ये पांच अणुव्रत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं, क्योंकि अहिंसा के द्वारा ही दीर्घ आयुष्य, आरोग्यता, परस्पर सहयोग, सौभाग्य और कारुण्य-भावना का विकास आदि सम्भव है। सत्य वचनों से छल, कपट आदि दुर्गुणों का नाश होता है, वचन सिद्धि की प्राप्ति होती है, व्यक्ति विश्वासपात्र बनता है। अचौर्य-व्रत द्वारा अपने अधिकारों की रक्षा होती है, ईमानदारी का गुण पनपता है, व्यक्ति धनवान बनता है, न्याय-नीति के दर्शन होते हैं। ब्रह्मचर्य द्वारा इन्द्रियों को संयमित किया जाता है, शारीरिक-मानसिक शक्तियों का विकास होता है और अपरिग्रह से शोषण की प्रवृत्ति पर अंकुश लग जाता है, आत्मतोष का अनुभव होता है, चिन्ताओं से मुक्ति मिलती है, अतः श्रावक को इन अणुव्रतों को ग्रहण करना चाहिए और इन्हें ग्रहण करके सम्यक् प्रकार से इनका पालन करना चाहिए। दिग्व्रत- इस दिग्व्रत को सभी आचार्यों ने गुणव्रत माना है। आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में दिग्परिमाण-गुणव्रत के माध्यम से विशेष निर्देश दिया है कि चातुर्मास आदि के समय विशेश, अथवा जीवन-पर्यन्त ऊपर-नीचे और तिरछे एक सीमा से अधिक नहीं जाने के स्वरूप परिभ्रमण को सीमित करना दिग्परिमाण-व्रत है।' ___उपासकदशांगटीका के अनुसार पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओं में इससे आगे नहीं जाऊंगा- इस प्रकार दिशाओं की मर्यादा कर लेना दिग्वत है। आवश्यक-सूत्र में उर्ध्व, अधो एवं तिर्यक् दिशा का यथा-परिमाण तथा पांच आश्रव-सेवन के त्याग को दिग्व्रत कहा है। 1 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1/19 - पृ. -8 2 उपासकदशांगटीका - मुनि घासीलाल - पृ. - 235 'आवश्यकसूत्र - आ. भद्रबाहुस्वामी - 6 4 रत्नकरण्ड श्रावकाचार - आ. समन्तभद्र - 60 267 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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