________________
दिया, तो वह अच्छे व्यापारी बन गया । कमाई अधिक होते-होते दो लाख, पांच लाख, दस लाख तक पहुँच गई, पर उसने मर्यादा तो दो लाख की ही थी, अतः सेठ ने दो लाख के अतिरिक्त सारी आय धर्म-कार्य में, जीव-दया में, स्वधर्मी - भक्ति के कार्यों में सद्व्यय करना प्रारम्भ कर दिया। उसने दो लाख से ज्यादा एक भी पैसा निजी उपयोग में नहीं लिया ।
परिग्रह - परिमाण से अनेक परोपकार के कार्य हो जाते हैं, क्योंकि इस व्रत से संग्रह-वृत्ति समाप्त हो जाती है। इस व्रत से व्यक्ति अधिक धन होने पर बांटने की प्रवृत्ति करेगा, पर बांधने की प्रवृत्ति नहीं करेगा ।
प्रश्न कि आज के समय में दो लाख, पांच लाख की मर्यादा करने पर गृहस्थ-जीवन का गुजारा नहीं चल सकता, परन्तु परिग्रह - परिमाण में यह कहा गया है कि आपको दो लाख या पांच लाख ही रखना है। कोई भी व्यक्ति पच्चीस लाख रखे, पचास लाख रखे, पचास करोड़ रखे, पर एक बार मर्यादा तो करे, मर्यादा के बाद मर्यादा से अधिक कमाए, तो धर्म - कार्य में लगाने का मन रखे। कई लोगों की इस विषय में सोच होती है कि अधिक कमा लेंगे, तो भाई, पत्नी, पुत्र-पुत्री आदि के नाम कर देंगे, इससे व्रत तो भंग होगा नहीं, पर पूर्व में यह बता दिया गया है कि इससे अतिचार एवं अनाचार कैसे लगते हैं ।
व्यक्ति के पास अधिक सम्पत्ति होने पर अन्य के नाम करने पर भी उस व्यक्ति का उस सम्पत्ति के प्रति मोह तो रहता ही है और कहीं-न-कहीं मेरापन भी रहता है, अतः इच्छानुसार परिग्रह का परिमाण अवश्य करे। जीवन - पर्यन्त के लिए न भी ले सकें, तो कम-से-कम पांच वर्ष के लिए या एक-दो वर्ष के लिए ही लें, पर लें अवश्य, क्योंकि परिग्रह - परिमाण से धन धूल के तुल्य हो जाता है, आसक्ति टूट जाती है और आत्मा उर्ध्वगति की ओर कूच करती है । परिग्रह की आसक्ति का परिणाम
को बढ़ाने वाला, आरम्भ (हिंसा) व कलह का हेतु तथा दुःखों का मूल है।
Jain Education International
―
परिग्रह मोह का आयतन, अहंकार और काम
For Personal & Private Use Only
266
www.jainelibrary.org