________________
परिग्रह के प्रकार- आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में पांचवें अणुव्रत के महत्व को बताते हुए कहा है कि इस अणुव्रत से हिंसा की निवृत्ति होती है। हरिभद्र के इस कथन से यह ज्ञात होता है कि अपरिग्रह और अहिंसा में परस्पर कितनी निकटता है। ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। इसी संकेत का समर्थन तत्वज्ञान–प्रवेशिका में भी पढ़ने को मिलता है, जो निम्न है
अहिंसा और अपरिग्रह एक-दूसरे के पूरक तत्त्व हैं। दोनों का इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं रह सकता।'
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में चेतन-अचेतन आदि अनेक वस्तुओं की विविधता के कारण परिग्रह के अनेक प्रकार कहे हैं। आचार्य हरिभद्र ने कहा है कि परिग्रह के अनेक प्रकारों को लेकर किसी में विरोध नहीं होना चाहिए, फिर भी आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत पंचाशक-प्रकरण में श्रावक-धर्मविधि की अठारहवीं गाथा में नौ प्रकार के परिग्रह का प्ररुपण किया है, जो निम्न हैं
1. क्षेत्र 2. वास्तु 3. हिरण्य 4. सुवर्ण 5. धन 6. धान्य 7. द्विपद 8. चतुष्पद 9. कुप्य।
आचार्य हरिभद्र पंचाशक-प्रकरण में लिखते हैं- योजना, प्रदान, बन्धन, कारण और भाव से क्रमशः उपर्युक्त नौ प्रकार के बाह्य-परिग्रह का निर्धारण कर उनकी सीमा का अतिक्रमण नहीं करता है, अर्थात् उनका उक्त निश्चित परिमाण से अधिक मात्रा में संचय नहीं करता है।
स्थानांगसूत्र में परिग्रह के तीन भेद बताएँ हैं- 1. कर्म-परिग्रह 2. शरीर-परिग्रह 3. वस्तु-परिग्रह।
उपासकदशांगटीका में परिग्रह के सात भेद बताए गए हैं- 1. हिरण 2. सुवर्ण 3. चतुष्पद 4. खेत 5. वस्तु 6. गाड़ी और 7. वाहन।'
तत्वज्ञान-प्रवेशिका - ले. प्रवर्तिनी सज्जनश्री - भाग-3 - पृ. - 20 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि-1/18 - पृ. -7 ३ स्थानांगसूत्र – आ. अभयदेवसूरि- 3/1/113 +उपासकदशांग टीका - आ. अभयदेवसूरि- 1/21 से 27
260
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org