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________________ इच्छाओं को परिमित नहीं किया, तो इच्छाएं बढ़ती जाएंगी और परिग्रह जितना बढ़ता रहेगा, हम उतने ही अशान्त होते चले जाएंगे। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ग्रह नौ होते हैं। जब वे किसी को प्रभावित करने लगते हैं, तो वह मन्त्र, जप, दान आदि से स्वस्थ होने का प्रयत्न करता है और स्वस्थ हो भी जाता है, पर यदि परिग्रह ऐसा ग्रह है, जिसके लगने के बाद व्यक्ति पागल हो जाता है और कई लोग तो अचेत अवस्था में आ जाते हैं। उन्हें किसी भी प्रकार का भान नहीं रहता है कि वे कितना अनर्थ कर रहे हैं या उनका कितना अनर्थ हो रहा है। वे अर्थ का अर्थ ही नहीं समझ पाते हैं। बाह्य-अर्थ के हेतु बाह्य व आन्तरिक- दोनों अनर्थ कर बैठते हैं। इस सम्बन्ध में मम्मण सेठ कि कथा सुज्ञात है। उसके पास अपार धन-सम्पत्ति थी, फिर भी परिग्रह के प्रति उसकी ममता एवं आसक्ति अति तीव्र थी, जिसके फलस्वरूप वह स्वयं भी न खा सका और किसी को दान भी नहीं दे सका। परिग्रह का परिमाण नहीं होने के कारण परिणाम आया कि धन की आसक्ति ने मम्मण सेठ को नर्क का भागीदार बना दिया, इसलिए पंचाशक-प्रकरण में आचार्य हरिभद्र ने इच्छा-परिमाण पर जोर दिया, क्योंकि परिग्रह को पाप की जन्मभूमि कहा गया है। परिग्रह के पीछे दौड़ने वालों से पूछो कि वे दुःखी है, या सुखी ? किसी को अपने बच्चों द्वारा पैसे बरबाद का दुःख है, तो किसी को दूसरों के द्वारा अपनी सम्पत्ति हड़पने का दुःख। किसी को आयकर के छापे की चिन्ता है, तो किसी को अपने सगे-सम्बन्धियों द्वारा अपनी जमीन-जायदाद पर अधिकार कर अंगूठा दिखाने की चिन्ता। किसी को शारीरिक-पीड़ा का दुःख है, तो किसी को कोई अन्य प्रकार का, अर्थात् जितने श्रीमंत हैं, वे किसी ना किसी रूप से दुःखी ही हैं, क्योंकि ज्यों-ज्यों इच्छाएँ बढ़ती है, तृष्णाएँ बढ़ती हैं, त्यों-त्यों दुःख बढ़जा जाता है और व्यक्ति दुःखी बन जाता है, परन्तु सुखी वे होते हैं, सुख उनका बढता जाता है, जो परिग्रह को एवं परिग्रह के ममत्व को अल्प करते जाते हैं, छोड़ते जाते हैं। अतः, समस्त पापों के मूल को छोड़कर जो समत्व को धारण करता है, संतोष को स्वीकार करता है, धर्म को अंगीकार करता है, वही महान् है, वही धन्योत्तम है, वही प्रशंसनीय है। 7 दशवकालिक - भाय्यंभवसूरि-6/20 259 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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