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अत्यधिक कामासक्त होना भी आध्यात्मिक व नैतिक पतन ही है तथा मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी यह अनुचित है ।
गृहस्थ-श्रावक को इस पतन से बचाने के लिए तथा सामाजिक-व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए एवं पारिवारिक सम्बन्धों की रक्षा के लिए तथा भारतीय - संस्कृति को पवित्र रखने के लिए भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य अणुव्रत, अर्थात् स्वपत्नी - संताषव्रत का उद्घोष किया। इस व्रत में अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों को माँ, बहन और बेटी के समान समझकर उनसे यौन-सम्बन्ध बनाने का निषेध होता है । ब्रह्मचर्याणुव्रती इस व्रत को देशतः (अंशरूप में) पालन करता है, अर्थात् काम से पूर्ण निवृत्त तो नहीं होता, परन्तु मर्यादित हो जाता है, जिससे गृहस्थ-जीवन की भूमिका का निर्वाह अच्छी तरह से कर सकता है।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने पूर्ववर्ती परम्परा का निर्वाह करते हुए पंचाशक - प्रकरण में अणुव्रतों की चर्चा करते हुए प्रथम अध्ययन की पन्द्रहवीं गाथा में चतुर्थ व्रत की चर्चा की है
परस्त्री का त्याग करना और अपनी पत्नी से संतोष करना स्वदार संतोषव्रत है । '
उपासक दशांगटीका में भी पंचाशक - प्रकरण की तरह ही माना गया है कि अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों का त्याग करना स्वदार - संतोषव्रत है । 2
तत्त्वार्थ-सूत्र में "मैथुन ही अब्रह्म है" - इस प्रकार का कथन किया है। सर्वार्थसिद्धि में लिखा है कि गृहीत या अगृहीत परस्त्री के साथ काम-र नहीं करना गृहस्थ का चौथा व्रत है।' यहाँ वैश्या, परस्त्री, विधवा, कुमारी और लेप - चित्रादिगत स्त्री का निषेध किया गया है, मात्र अपनी भार्या में प्रतिगमन की प्रवृत्ति रहती है, उसे ही मुनि-जन चौथा ब्रह्मचर्याणुव्रत कहते हैं ।
1 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 1/15 - पृ. - 6
± उपासकदशांग टीका - आचार्य अभयदेवसूरि- 1/16 - पृ. 27
3 तत्त्वार्थ- सूत्र - आचार्य उमास्वाति - मैथुनब्रह्म -7/11
4 सर्वार्थसिद्धि - आचार्य पूज्यपाद - 7/20- पृ. 277
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