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________________ ब्रह्मचर्य-व्रत- जैन-परम्परा में ब्रह्मचर्य का विशद विश्लेषण किया गया है। ब्रह्मचर्य की साधना को अणुव्रत के रूप स्वपत्नी-संतोषव्रत व महाव्रत के रूप में ब्रह्मचर्यव्रत कहा जाता है। ब्रह्मचर्यव्रत का भंग होने पर अन्य समस्त गुण मथे हुए दही जैसे, पिसे हुए धान्य जैसे चूर्ण-विचूर्ण हो जाते हैं, अतः बुद्धिमान् व्यक्ति को भी ब्रह्मचर्यव्रत का पालन अवश्य करना चाहिए। सूत्रकृतांग में भी मोक्ष-प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्यव्रत को आवश्यक माना गया है __जो साधक स्त्रियों से सेवित नहीं है, वे मुक्त पुरुषों के समान कहे गए हैं, इसलिए कामिनी या कामिनी-जनित कामों के त्याग से ऊर्ध्व-ऊपर उठकर (मोक्ष) देखा। (जिन्होंने काम-भोगों को रोगावत् देखा है, वे महासत्व साधक भी मुक्त-तुल्य हैं)। संयम को संसार में सर्वोत्तम रत्न कहा गया है, जिसकी प्राप्ति से कषायरूपी समस्त दारिद्रय समाप्त हो जाता है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य को तप आदि का मूल माना है "बंभचेरं उत्तमतव नियम नाणं-दसण चरित्त सम्मत विणय मूलं" ब्रह्मचर्यउत्तमतप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र-सम्यक्त्व और विनय का मूल श्रावक का चौथा अणुव्रत ब्रह्मचर्य है, जिसका भावार्थ है- अब्रह्म का, अर्थात् ऐन्द्रिय विषयों का आसक्तिपूर्वक सेवन नहीं करना। ब्रह्म, अर्थात् आत्मा में विचरण करना ही ब्रह्मचर्य है। गृहस्थ जीवन के उत्तरदायित्व का निर्वाह करते हुए ब्रह्मचर्यव्रत का पूर्णतः पालन अशक्य है, परन्तु 3 सूयगडांगसूत्र - तृतीय उद्दे क - गाथा- 144 – पृ. सं. - 157 1 सूत्रकृतांग-सूत्र का दार्शनिक अध्ययन - साध्वी निलांजनाश्री- 15 अध्ययनं – पृ. - 170 2 प्रश्न व्याकरणसूत्र - संवरद्वार-4 250 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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