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हरिभद्र के समय-निर्णय में एक और महत्वपूर्ण समस्या उत्पन्न होती है, सिद्धर्षिकृत उपमितिभवप्रपंच-कथा के उस उल्लेख से, जिसमें सिद्धर्षि ने हरिभद्र को अपना धर्म-बोध गुरु कहा है। सिद्धर्षि ने उपर्युक्त कथा का समापन (वि.सं. 962) ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी, गुरूवार को किया था। सिद्धर्षि द्वारा लिखे संवत् के अनुसार वह समय ई.सं. 906 सिद्ध होता है तथा वार, नक्षत्र, तिथि आदि की गणना भी सिद्ध होती है। सिद्धर्षि ने उपमितिभवप्रपंचकथा में लिखा है कि हरिभद्र ने भविष्य में होने वाले मुझे जानकर ही मेरे चैत्यवन्दन-सूत्र का आलम्बन लेकर ललितविस्तरावृत्ति की रचना की, साथ ही उन्होंने हरिभद्र को अपना धर्म-बोध करो गुरु भी बताया है -
"आचार्य हरिभद्रो मे धर्मबोधकरो गुरु :।"
हालांकि कई विद्वानों ने यह सिद्ध किया है कि सिद्धर्षि हरिभद्र के वरदहस्तों से दीक्षित शिष्य थे, परन्तु जिनविजयजी ने “अनागत" व "मानो मेरे लिए" - इन शब्दों से निष्कर्ष निकाला कि हरिभद्र एवं सिद्धर्षि में समय का अन्तराल है। जिनविजयजी ने सिद्धर्षि को गर्ग ऋषि का शिष्य बताया है व हरिभद्र
को धर्मबोध गुरु कहा है। ऐसी स्थिति में कई विद्वानों ने हरिभद्र व सिद्धर्षि को समकालीन भी बताया पर 'प्रभावक-चरित्र' में प्रभाचन्द्रसूरि ने हरिभद्र व सिद्धर्षि को समकालीन नहीं माना है।"
जिनविजयजी द्वारा प्रस्तुत तथ्यों को मान्य नहीं करते हुए डॉ. जेकोबी ने हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय में लिखे सूत्र- "प्रत्ययंकल्पना पौढमभान्त''18 को अभिव्यक्त करते हुए कहा कि यह व्याख्या न्यायबिन्दु में प्रथम परिच्छेद में धर्मकीर्ति की दी हुई व्याख्या से शब्दशः मिलती है।
इस प्रकार हरिभद्र धर्मकीर्ति के बाद अवतीर्ण हुए हैं, अतः धर्मकीर्ति का समय वि.सं. 600 से 650 है। डॉ. जेकोबी ने हरिभद्र व सिद्धर्षि को समकालीन माना है, किन्तु वे सिद्धर्षि के कुछ पूर्ववर्ती भी हो सकते हैं।
प्रो. ल्यूमन की भी यही अवधारणा है। प्रो. के.वी. अभ्यंकर ने आचार्य हरिभद्र पर आचार्य शंकराचार्य के प्रभाव को बताकर शंकराचार्य के बाद होना माना है," अर्थात् वि.सं. 770 से 820 तक का समय निर्धारित किया है।
मुनि जिनविजयजी के अनुसार शंकराचार्य ने “सप्तमैत्रीनय" तथा "स्याद्वाद-सिद्धान्त" का खण्डन किया है, परन्तु शंकराचार्य का खण्डन हरिभद्र ने कहीं नहीं किया, अतः उनका मानना है कि यदि हरिभद्र
16 हरिभद्रसूरि समय निर्णय, ले. मुनि जिनविजयजी, पृ. 15 17 हरिभद्रसूरिस्य समय निर्णय, ले. मुनि जिनविजयजी, पृ. 18 18 षड्दर्शन समुच्चय (हरिभद्रकृति), श्लोक नं. 10 19 हरिभद्र के प्राकृतकथा साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, शास्त्री नेमिचन्द, पृ. 15
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