SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नन्दीचूर्णि से भी कुछ पाठ हरिभद्रसूरि ने अपनी कृतियों में उद्धृत किए हैं। नन्दीचूर्णि के कर्ता जिनदासगणि महत्तर ने नन्दीचूर्णि का रचना का समय शक्-संवत् 598 निरूपित किया है, अतः हरिभद्र का समय तदनुसार वि.सं. 734 या ई. सन् 676 के बाद ही हो सकता है, अतः हरिभद्र के समयसम्बन्धी पूर्वोक्त गाथा के संवत् को शक्-संवत् मानकर हरिभद्र का काल ईसा की सातवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध एवं आठवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध स्वीकार करें, तो नन्दीचूणि के साथ संगति होने में मात्र 20-25 वर्ष का ही अन्तर रहता है, अतः यह तो निश्चित है कि हरिभद्र का सत्ता-समय विक्रम की 7 वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और 8 वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध है। ___ पुनः, यदि हम मान लेते हैं कि निशीथचूर्णि में प्राकृत धूर्ताख्यान का उल्लेख किसी पूर्वाचार्य की कृति थी, तो उसी को आधार मानकर वे निशीथचूर्णि के रचनाकाल को वि.सं. 732 से आगे हरिभद्र के समय ले जा सकते हैं। मुनिश्री जिनविजयजी ने गहन खोज कर 'हरिभद्रसूरि समय निर्णय' पुस्तिका में हरिभद्र के समय को ई. सन् 700-770 निरूपित किया है। यदि पूर्वोक्त गाथा के अनुसार हरिभद्रसूरि का समय वि.सं. 585 स्वीकृत करते हैं, तो जिनविजयजी द्वारा उल्लिखित समय में लगभग 150-200 वर्ष का अन्तर दिखाई देता है, अतः इसे शक्संवत् माना जाए, तभी यह समय सिद्ध होगा। मुनि धनविजयजी ने 'चतुर्थ स्तुति निर्णय शंकोद्धार' में 'रत्नसंचय प्रकरण' की निम्न गाथा का विवरण दिया है "पणपण्ण बारससए हरिभद्दोसूरि आसि पुव्वकाए।"14 इस गाथा से यह ज्ञात होता है कि हरिभद्र का समय वीर-निर्वाण सं. 1255, अर्थात् वि.सं. 785, ई. सन् 728 है। हालांकि इसमें यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि यह समय जन्म का है या स्वर्गवास का? अतः यह अनुमान लगा सकते हैं कि यह सत्ता का समय होगा। यद्यपि इस गाथा के अनुसार समय को पुष्ट करने के लिए अन्य कोई प्रामाणिक सन्दर्भता भी उपलब्ध नहीं है, किन्तु यह विद्वत्मान्य समय से पूर्ण संगति रखता है। डॉ. सागरमल जैन का कथन है कि वीर-निर्वाण संवत् में हो रही 60 वर्ष की भूल का हमें संशोधन करना चाहिए। डॉ. सागरमल जैन 'सागर जैन विद्याभारती' में इस भूल का संशोधन कर वीर-निर्वाण के वि.पू. 410, अथवा ई.पू. 467 मानते हैं, तो ऐसी स्थिति में हरिभद्र का समय 1255 सिद्ध हो जाता है, जिससे ई. सन् 788 युक्तिसंगत है, अर्थात् जिनविजयजी द्वारा शोधित समय के अधिक निकट है। 14 पंचाशक प्रकरण (भूमिका), डॉ. सागरमल जैन, पृ. xvI 15 पंचाशक प्रकरण (भूमिका), डॉ. सागरमल जैन, पृ. xvil Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy