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________________ करना चाहिए। सम्यक् पालन करते हुए जिन कारणों से अतिचार लगते हैं, वे पाँच कारण निम्नलिखित हैं। आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के प्रथम अध्याय में सत्याणुव्रत के दोषों को निम्न प्रकार से बताया हैं(1) सहसाभ्याख्यान (2) रहस्याभ्याख्यान (3) स्वदारमन्त्रभेद (4) मिथ्योपदेश (5) कूटलेखकरण। (1) सहसाभ्याख्यान- गलत अनुमान लगाना, बिना विचारे किसी पर दोषारोपण करना, अर्थात् निर्दोषी को दोषी कहना। बिना जाने ही अनुमान से यह कहना कि तू चोर है, व्यभिचारी है, परदारगामी है, भिखारी है, मायावी है, कपटी है, लुटेरा है, शराबी है आदि । यह प्रवृत्ति सत्यणुव्रत को दूषित करती है। इस प्रवृत्ति से अन्य के जीवन में भी कोई दुर्घटना घट सकती है, जिसे हम निम्न उदाहरण से समझ सकते हैं दो व्यक्ति आपस में बातें कर रहे थे, तभी तीसरा व्यक्ति वहां पहुंच गया। उन दोनों की बातें पूरी हो चुकी थी। तीसरे व्यक्ति को यह शंका हो गई कि ये दोनों मेरी ही बातें कर रह हैं, इन्हें दूसरों की निन्दा करने में ही आनन्द आता है। इससे वे दोनों स्तब्ध रह गए कि यह ऐसा क्यों सोच रहा है ? हम तो किसी अन्य सन्दर्भ में बात कर रहे थे। इस गलतफहमी के चलते उनमें आपस में कलह हो गया और कलह के फलस्वरूप परस्पर मनमुटाव हुआ, जिससे उनके सम्बन्ध बिगड़ गए। गलत अनुमान से अणुव्रत दूषित हो गया और व्यवहार भी बिगड़ गया। आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में स्पष्ट किया है कि श्रावक इस अतिचार का त्याग करें। (2) रहस्याभ्याख्यान - गुप्त बात को प्रकट करना, किसी पर झूठा आरोप लगाना, झूठा कलंक लगाना, विश्वासघात नहीं करना, गलत बात का प्रचार करना आदि इस अतिचार के अन्तर्गत हैं। (3) स्वदारमन्त्रभेद - अपनी पत्नी द्वारा कही गई गुप्त बात को दूसरे के सामने प्रकट करना स्वदारमन्त्रभेद है। मान लीजिए किसी स्त्री को अपने पति पर पूर्ण विश्वास है कि वह पूर्णरूप से गंभीर हैं। उसे बताई गई कोई बात इधर से उधर नहीं होगी। इतना 'इह सहसमक्खाणं रहसा य सदार मंत भेयं च, मोसोवएसयं कूडलेहकरणं च वज्जेइ। ||112|| - पंचा एक प्रकरण-1/12 - पृ. -5 238 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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