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________________ अध्याय-3 पंचाशक-प्रकरण में श्रावकधर्मविधि पंचाशक-प्रकरण के प्रथम श्रावकधर्मविधि-पंचाशक की प्रथम गाथा में अपने इष्ट को नमस्कार करके रचनाकार उनसे श्रावकधर्म के विवेचन की अनुज्ञा प्राप्त करते हैं। - दूसरी गाथा में उत्कृष्ट श्रावक की विवेचना की गई है।02 तीसरी गाथा में सम्यक्त्व के स्वरूप को बताते हुए मिथ्यात्व के क्षय उपशम अथवा क्षयोपशम के कारण धर्मशास्त्र सुनने की मानसिकता का वर्णन किया है। सम्यग्दृष्टि और व्रतीश्रावक में अन्तर- श्रावकधर्मविधि-पंचाशक की चतुर्थ गाथा में यह स्पष्ट किया गया है कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के पश्चात् जिनवाणी सुनने की इच्छा होती है, देव, गुरु, धर्म के प्रति श्रद्धा होती है, किन्तु वह श्रावक के योग्य व्रतों को स्वीकार करे ही- यह आवश्यक नहीं है। व्रत ग्रहण कर भी सकता है और नहीं भी।4 ___ व्रत स्वीकार नहीं करने की बात इस अपेक्षा से कही गई है कि चारित्र-मोहनीय कर्म के उपशम, क्षयोपशम, क्षय के अभाव मे व्रत स्वीकार नहीं किया जा सकता। सम्यक्त्व की योग्यता तो दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय, उपशम तथा क्षयोपशम से होती है। दर्शन-मोह के क्षय, उपशम और क्षयोपशम के साथ ही अथवा उसके पश्चात् शीघ्र ही चारित्र-मोह का क्षय, उपशम, क्षयोपशम हो जाए- यह अनिवार्य नहीं है, अतः सम्यक्त्व के प्रादुर्भाव के साथ ही व्रत-ग्रहण हो भी सकता है और नहीं भी। दर्शन मोह का क्षय, उपशम या क्षयोपशम हो गया हो, किन्तु चारित्रमोहनीय-कर्म का क्षय आदि न हुआ हो, तो सम्यग्दर्शन ही होता है, सम्यक्चारित्र नहीं। देश-सम्यक्चारित्र के अभाव में व्यक्ति श्रावकत्व की भूमिका में प्रवेश नहीं कर सकता है। हालाकि सम्यग्दृष्टि जीव के लिए यह कथन है कि वह संसार में रहकर संसार से अलग रहता है, फिर भी उसे व्रती 01 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 1/1 02 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 1/2 03 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 1/3 04 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 1/4 모모 226 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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