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________________ आचार्य हरिभद ने प्रस्तुत प्रश्न का समाधान करते हुए यात्राविधि-पंचाशक की पच्चीसवीं से अट्ठाईसवीं तक की गाथाओं में कहा है ____ यदि आचार्य और श्रावक- दोनों राजा से हिंसा बन्द करवाने में समर्थ न हो सकें, तो उन दोनों को राजा से मिलकर हिंसा बन्द करवाने वाले पूर्व महापुरुषों/पूर्वजों का निम्नानुसार कथन कर अन्तःकरण से सम्मान करना चाहिए। वे पूर्वज धन्य हैं, प्रशंसनीय हैं, जिन्होंने जिनयात्रा में राजा आदि को उपदेश देकर तथा हिंसकों को अन्य आजीविका के साधन देकर हिंसा बन्द करवाई थी। हम तो अभागे हैं, क्योंकि हम जिनयात्रा को शास्त्रोक्त-विधि से करने में असमर्थ हैं, फिर भी इतने धन्य तो हैं ही कि हम उन धर्म-प्रधान महापुरुषों के सुखद आचरण का सम्मान करते हैं। इस प्रकार उन महापुरुषों का सम्मान करने से उनके गुणों की अनुमोदना अवश्य होती है और हिंसा के निवारण रूप विशेष भाव होने से उन पूर्व पुरुषों के समान ही कर्मक्षयरूप फल मिलता है। चूंकि शुभाशुभ कर्मबन्ध का मुख्य कारण व्यक्ति का अध्यवसाय ही है, अतः इससे शुभ भावानुरूप फल की प्राप्ति अवश्य होती है। __जैन-दर्शन की यह विशेषता है कि वह पुरुषार्थ करने की बात कहता है। यदि पुरुषार्थ करते हुए भी सफलता नहीं मिलती है, तो आक्रोश करने या निराश होने की आवश्यकता नहीं है, अपितु पूर्व में जिन राजाओं ने अहिंसक क्षेत्र की या अभयारण्य की घोशणा की हो, उनकी अनुमोदना, प्रशंसा, सराहना करना चाहिए। इससे पूर्वजों की परम्परा के निर्वाह के साथ-साथ अहिंसारूप फल की प्राप्ति भी हो जाती है। कल्याणकों की आराधना का विधान - श्रावकों के लिए जीवहिंसा-निवारण जिस प्रकार कर्तव्य है, उसी प्रकार परमात्मा के कल्याणक-दिनों की आराधना करना भी कर्तव्य हैं। परमात्मा का इस लोक में अवतरण होना, जन्म होना, दीक्षा लेना, बोध को पाना एवं निर्वाण को प्राप्त करना- ये प्रसंग सभी जीवों के लिए सुखकारी हैं, अतः उनके जन्म आदि के शुभ प्रसंगों को ही कल्याणक कहा जाता है और प्रभु के इस प्रकार के 1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 9/25 से 28 – पृ. - 155,156 218 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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