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हो सकती है, इसलिए राजा को विधिपूर्वक उपदेश देना चाहिए। इसी तथ्य को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र यात्राविधि-पंचाशक की पन्द्रहवीं से बीसवीं तक की गाथाओं में कहते हैं
___ मुख्य आचार्य राजा से मिलकर विधिपूर्वक उपदेश दे, तो उस उपदेश से सन्तुष्ट राजा, ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो न दे सके। फिर तो, जिनयात्रा के अवसर पर जीवहिंसा-निवारण कौन-सा बड़ा काम है, अर्थात् जीवहिंसा का निवारण तो राजा ही कर सकता है।
साधु को राजा के पास जाकर जैन-शासन से अविरुद्ध विनय, दाक्षिण्य और सज्जनता आदि गुणों की प्रशंसा करना चाहिए। महापुरुषों के उत्तम उदाहरण देना चाहिए और भाव-भरे नीतिपरक संवादों का वर्णन करना चाहिए। यही राजा को उपदेश देने की विधि है।
हे श्रेष्ठ पुरुष ! मनुष्य के रूप में सभी मनुष्य समान होते हैं, फिर अपने पुण्यकर्म से ही मनुश्य राजा बनता है, यह जानकर आपको धर्म में प्रवृत्ति करना चाहिए। लोगों के चित्त को प्रसन्न करने वाली मनुष्य और देवलोक-सम्बन्धी सभी सम्पत्तियों का कारण धर्म ही है और धर्म ही संसाररूपी समुद्र को पार कराने वाला जहाज है।
वीतराग भगवान् जिनेन्द्रदेव की यात्रा द्वारा उचित कार्य करने से सबका शुभ होता है और उनके गुणों का अतिशय प्रकट होता है। यही श्रेष्ठ धर्म है।
जिनेन्द्रदेव के जन्मादि के समय सभी जीव सुखी होतें है, इसलिए हे महाराज! इस समय भी इस जिनयात्रा में अमारि-प्रवर्तन (हिंसा-निवारण) के माध्यम से सभी जीवों को अभयदान देकर सुखी करें। आचार्य की अनुपस्थिति में करणीय कार्य - जीव-दया ही श्रेष्ठ धर्म है। कहा भी गया है- 'अहिंसा परमोधर्मः । अहिंसा ही महावीर का मूल सिद्धान्त है। जीओ और जीने दो- यह महावीर का मूल मन्त्र है। 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' महावीर का परम-प्रिय सूत्र है, अतः महोत्सव के प्रसंग पर जीव-दया का कार्य अधिक-से-अधिक होना चाहिए।
| पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 9/15 से 20 – पृ. – 152,154
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