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कहने में नहीं चूकते हैं कि ये जैन लोग कैसे हैं ? स्वयं तो माल उड़ाते हैं और हमें कुछ देते ही नहीं, अतः यह भी जिनाज्ञा है कि जिनयात्रा-महोत्सव में दीन-दुःखियों को गरीबों को दान देना चाहिए। दान की यह महिमा और परम्परा आज से नहीं, जब से तीर्थंकर हुए हैं, तब से है कि याचक को दान अवश्य देना चाहिए। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र ने यात्राविधि-पंचाशक की छठवीं गाथा में दानद्वार का वर्णन इस प्रकार से किया है
जिनयात्रा में दीनों और अनाथों को दयापूर्वक यथाशक्ति अन्नादि का दान करना चाहिए, क्योंकि तीर्थंकरों ने भी अनुकम्पा-दान किया है। वे भी ज्ञानादि गुणरूप रत्नों के आगार हैं, अतः सुपात्र बुद्धि से उनको भी दान देना चाहिए। तप-द्वार का विवरण- जिनयात्रा में तप करने का भी निर्देश दिया है। महोत्सव में उपवास, आयम्बिल, एकासन आदि तपस्या करना चाहिए। तप के प्रभाव से महोत्सव निर्विघ्न सम्पन्न होता है तथा तप से महोत्सव की शोभा दोगुनी बढ़ जाती है। तप से आत्म-परिणामों की विशुद्धि भी होती है। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र यात्राविधि-पंचाशक की सातवीं गाथा में' कहते हैं
__ जिनयात्रा में एकासन, उपवास आदि तप भी अवश्य करना चाहिए। इससे भाव-विशुद्धि अवश्य होती है। धर्मार्थियों को भाव-विशुद्धि ही उपादेय है तथा जिनयात्रा में तप करने से विधि का पालन होता है। शरीर-शोभाद्वार - महोत्सव की शोभा के लिए शरीरादि की विभूषा का भी निर्देश दिया गया है। विभूषा ऐसी हो, जिसे देखकर अन्यों को भी शुभभाव आएँ कि इनके महोत्सव चल रहे हैं, परन्तु यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि महोत्सव में शरीर-विभूषा इस प्रकार की न करें, जिससे शरीर के अंगों का प्रदर्शन हो। शरीर-विभूषा सभ्य होना चाहिए। आचार्य हरिभद्र यात्राविधि-पंचाशक की आठवीं गाथा में शरीर-विभूषा का विवरण देते हुए कहते हैं
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 9/7 - पृ. - 150 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 9/8 - पृ. - 150
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