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सभी इन्द्रादि देवताओं की पूजा करना चाहिए और सभी लोकपालों देवों यथा- सोम, यम, वरुण और कुबेर की पूर्व आदि दिशा में जिस क्रम से वे स्थित हैं, उसी क्रम से उनकी पूजा करना चाहिए।
प्रस्तुत बिम्ब के स्वामी तीर्थकर भगवान् इन्द्रादि सभी देवों के अभ्युदय के कारण होते हैं, अतः प्रतिष्ठा के समय उन देवताओं की पूजा उचित है।
वे दिक्पाल इत्यादि देव साधर्मिक हैं, क्योंकि वे जिनेन्द्रदेव के भक्त हैं। वे महान् ऋद्धि वाले और सम्यग्दृष्टि होते हैं, इसलिए प्रतिष्ठा में उनका पूजन, सत्कार आदि उचित है। बिम्ब के पास कलशों की स्थापना एवं मंगलदीप- परमात्मा की स्थापना सभी के लिए मंगलमय हो, अतः उनके समीप कलश एवं मंगलदीप की स्थापना का निर्देश किया गया है । जल से युक्त कलश शुभ शकुन है और यह शकुन दुःख-दारिद्र्य समाप्त होने का सूचक है। मंगलदीप मंगल का प्रतीक है तथा संघ में ज्ञान-सूर्य के उदित होने का सूचक है। आचार्य हरिभद्र जिनबिम्ब-प्रतिष्ठानविधि-पंचाशक की बाईसवीं तथा तेईसवीं गाथाओं में' कहते हैं
___ जिनप्रतिमा के चारों ओर जल से परिपूर्ण चार कलश रखना चाहिए, जिनमें स्वर्णादि मुद्रा या रत्न आदि डाला गया हो तथा विविध पुष्पों से युक्त हों और उनमें पीले सूत के कच्चे धागे बंधे हुए हों।
बिम्ब के समक्ष घी और गुड़ से युक्त मंगलदीप रखना चाहिए तथा अच्छे गन्ने के टुकड़े और मिष्ठान्न आदि रखना चाहिए तथा जौ के अंकुर, चन्दन का स्वस्तिक आदि सभी प्रकार के रमणीक आकार बनाना चाहिए।
आचार्य हरिभद्र जिनबिम्ब-प्रतिष्ठानविधि-पंचाशक की चौबीसवीं तथा पच्चीसवीं गाथाओं में कहते हैं कि परमात्मा की स्थापना के पूर्व प्रतिमा के साथ ऋद्धि और वृद्धि- इन दो औषधियों से युक्त विचित्र मांगलिक कंगन बांधना चाहिए, क्योंकि ये ऋद्धि, वृद्धि, औषध-युक्त कंगन द्रव्य एवं भाव-ऋद्धि की वृद्धि के कारण हैं। प्रतिमा पर
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 8/22,23 - पृ. - 138,139 'पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-8/24,25 - पृ. - 139
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