SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हुआ तथा हित या उपकार अधिक हुआ, इसी तरह जिनभवन-निर्माण में पाप कम और उपकार अधिक होता है। इसी विषय को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र जिनभवन निर्माणविधि पंचाशक की उन्तीसवीं से इक्तालीसवीं तक की गाथाओं में' यतनाद्वार की विस्तृत चर्चा करते हुए उदाहरण के माध्यम से जिनभवन निर्माणविधि का प्रतिपादन करते हैं जिनभवन के निर्माण हेतु लकड़ी लाना, भूमि खोदना आदि कार्यों में जीवहिंसा न हो, इसके लिए सावधानी रखना चाहिए। वीतराग भगवान् ने यथाशक्ति जीवरक्षा में सावधानी को ही धर्म का सार कहा है। यतना धर्म की माता है। यतना ही धर्म का पालन कराने वाली है। यतना धर्म की वृद्धि कराने वाली है और यतना सर्वथा सुखकारिणी है। जिनेश्वरों ने यतनापूर्वक कार्य कराने वाले जीव को श्रद्धा, बोध और आसेवन के भाव से क्रमशः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का आराधक कहा है। यद्यपि यतना (सावधानीपूर्वक की गई क्रिया) में थोड़ी हिंसा तो होती है, इसलिए वह क्रिया अल्पदोषयुक्त है, फिर भी इससे नियमतः बड़े-बड़े दोष दूर हो जाते हैं, इसलिए बुद्धिशालियों को यतना को निवृत्ति-प्रधान ही जानना चाहिए। जिनमन्दिर निर्माण में प्रासुक जल और दल की विशुद्धि यतना है तथा अन्य खेती-बाड़ी आदि आरम्भों का त्याग करके जिनभवन निर्माण के समय उपस्थित रहना भी यतना है। मन्दिर के कार्य में स्वयं उपस्थित रहने से यथायोग्य जीवों की रक्षा करवाते हुए मजदूरों से काम करवाया जा सकता है। इस प्रकार, जिनभवन-सम्बन्धी यतना प्रवृत्तिरूप होने पर भी आरम्भ अल्प होने और हिंसा की निवृत्तिरूप भावों के अधिक होने से परमार्थतः निवृत्तिरूप है। जिनभवन सम्बन्धी यतना में थोड़ी हिंसा होती है, किन्तु साथ ही खेती आदि बड़े-बड़े हिंसा कार्य बन्द हो जाते हैं, इसलिए यहाँ आरम्भ कम होता है और अधिक आरम्भ से निवृत्ति होती है, इसलिए ऐसी यतना भी परमार्थ से निवृत्तिरूप है, इसलिए श्री आदिनाथ भगवान् ने शिल्पकला, राजनीति आदि का जो उपदेश दिया है, 1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 7/29 से 41 – पृ. – 124,128 189 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy