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चारित्र की स्वीकृतिरूप भावस्तव वीतराग भगवान् की आज्ञा-पालनरूप उचित प्रवृत्ति होने के कारण महत्वपूर्ण है। वस्तुतः, वीतराग की सम्पूर्ण आज्ञा का पालन ही उचित प्रवृत्ति है। द्रव्यस्तव सम्पूर्ण आज्ञा के पालनरूप नहीं है।
भावसाधु के अतिरिक्त दूसरा कोई भी सम्पूर्ण आज्ञा-पालनरूप उचित प्रवृत्ति नहीं कर सकता है, क्योंकि भावसाधुत्व से रहित अन्य व्यक्तियों को सम्पूर्ण आज्ञापालन से प्राप्त होने वाला यथार्थ लाभ नहीं मिलता है, साथ ही उनमें चारित्रमोहनीय आदि कर्मों का दोष भी होता है।
जिनाज्ञा का पूर्णतः पालन साधु से ही हो सकता है, इसी कारण अन्य आचार्य भी पुष्प - पूजा, आहार-दान, स्तुति और चारित्र - स्वीकृति (प्रतिपत्ति)- इन चार पूजाओं में से अन्तिम पूजा (चारित्र- स्वीकृति) को उत्तम मानते हैं, क्योंकि वह प्रतिक्षण होती है, जबकि पुश्पादि पूजा तो कभी-कभी होती है। दोनों स्तव परस्पर सम्बद्ध हैं द्रव्यस्तव और भावस्तव भिन्न-भिन्न होते हुए भी दोनों अन्योन्याश्रित हैं, क्योंकि द्रव्यस्तव के बिना भावस्तव असम्भव है। भावस्तव जहाँ है, वहाँ द्रव्यस्तव का तो उसमें ही समावेश हो गया है। गृहस्थ में द्रव्यस्तव के साथ भावस्तव भी हो सकता है तथा साधु में भावस्तव के साथ द्रव्यस्तव भी हो सकता है । इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र स्तवविधि - पंचाशक की सत्ताईसवीं गाथा
में कहते हैं
जिनभवन-निर्माण आदि द्रव्यस्तव और चारित्र स्वीकाररूप भावस्तव- ये दोनों भिन्न-भिन्न होने पर भी परमार्थ से सम्बद्ध हैं । इन दोनों के अधिकारी पहले कह दिए गए हैं, अर्थात् द्रव्यस्तव का अधिकारी गृहस्थ है और भावस्तव का अधिकारी साधु है, किन्तु गौण रूप से गृहस्थ को भी भावस्तव होता है और साधु को भी द्रव्यस्तव होता है, इसलिए दोनों स्तव परस्पर सम्बद्ध हैं।
साधु के द्रव्यस्तव की पुष्टि - हरिभद्र ने द्रव्यस्तव और भावस्तव को साधु में एवं गृहस्थ में दोनों में ही मुख्य एवं गौण रूप से माना है, अतः साधु में भावस्तव के साथ
2 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 6 / 27 - पृ.सं. - 108
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