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________________ पूजापूर्वक किया गया यह चैत्यवन्दन कर्मरूपी विष का नाश करने वाला परममन्त्र है - ऐसा सर्वज्ञदेव कहते हैं, इसलिए यह करने योग्य है। इस चैत्यवन्दन की मुद्रा जिनों द्वारा आचरित अविचलित कायोत्सर्ग की मुद्रा है। प्रणिधान - प्रकरण - चैत्यवन्दन के पश्चात् प्रणिधानसूत्र बोलने वाले का विधान है, अर्थात् परमात्मा के सम्मुख शुभसंकल्प करना, क्योंकि शुभसंकल्प से ही आत्मा का उत्थान होता है, विघ्नों का निवारण होता है, इच्छित फल की प्राप्ति होती है, आत्मतोष होता है, चित्त प्रसन्न रहता है, आत्मगुणों का विकास होता है, अतः आचार्य हरिभद्र पूजाविधि-पंचाशक की उन्नीसवीं गाथा में यही निर्देश करते हैं- चैत्यवन्दन समाप्त होने पर प्रणिधान करना चाहिए, क्योंकि प्रणिधान से धर्मकार्य में प्रवृत्ति, उसमें आने वाले विघ्नों पर विजय, प्रारम्भ किए गए कार्य की सिद्धि और अपनी एवं दूसरे की धर्म-प्रवृत्ति को स्थिर बनाना सम्भव होता है। धर्मकार्य में प्रवृत्ति आदि इच्छा वाले व्यक्ति को प्रणिधान अर्थात् शुभसंकल्प अवश्य करना चाहिए । प्रश्न उपस्थित होता है कि परमात्मा की पूजा से इस प्रकार का संकल्प करना निदान होगा ? और जैनदर्शन में निदान करने वालों को मिथ्यात्व माना गया है ? आचार्य हरिभद्र ने पूजाविधि - पंचाशक की तीसवीं एवं इकतीसवीं गाथाओं में' इस प्रश्न का समाधान दिया है, तथा प्रणिधान की अनिवार्यता बताई गई है - प्रणिधान ( शुभ संकल्प) को निदान नहीं कह सकते हैं, क्योंकि निदान में अशुभ कर्मबन्ध की कारणभूत लौकिक आकांक्षाओं की पूर्ति की मांग की जाती है, जबकि प्रणिधान में शुभ की। अशुभ कर्म का बंध कराने वाली लौकिक वस्तुओं की मांग निदान है, न कि शुभ की। प्रणिधान बोधि की प्रार्थना के समान है। बोधि- प्रार्थना ही समान शुभभाव का हेतु होने के कारण प्रणिधान निदान नहीं है । यदि प्रणिधान निदानरूप होता, तो चैत्यवन्दन के अन्त में उसे करने का निर्देश नहीं दिया जाता, क्योंकि निदान शास्त्र निषिद्ध है । 105 1 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 4/30,31 - पृ. - 66,67 2 पंचशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 4/32 - पृ. - 67 Jain Education International For Personal & Private Use Only 125 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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