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द्रव्य और भाव- इन दो प्रकारों से पवित्र होकर जिनपूजा करना चाहिए। स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनना द्रव्य–पवित्रता है और अपनी स्थिति के अनुसार नीतिपूर्वक प्राप्त किए गए धन से श्रद्धापूर्वक पूजा करना भाव-पवित्रता है।
खेती, व्यापारादि से सदा पृथ्वीकायिक आदि जीवों की हिंसारूप कार्य में स्थित गृहस्थों को जिनपूजा के लिए यत्नपूर्वक स्नान करना भी नियम से पुण्यबन्ध के लिए ही होता है, क्योंकि यह शुभभाव का हेतु है।
जिस प्रकार कुआँ खोदने में बहुत से जीवों की हिंसा होती है, किन्तु कुंआ खोदने या खुदवाने वाले का आशय हिंसा करना नहीं, अपितु जल निकालना होता है, जिससे बहुत से लोकोपकारी कार्य सिद्ध होते हैं, उसी प्रकार जिनपूजा के लिए स्नान करने में थोड़ी हिंसा तो होती है, किन्तु पूजा के फलस्वरूप पुण्यबन्ध होने से लाभ ही होता है।
स्नानादि करने की भूमि का जीव-रक्षा के लिए निरीक्षण करना चाहिए, जल को छान लेना चाहिए, पानी में मक्खियाँ न पड़ जाएँ, इसका ध्यान रखना चाहिए, यही स्नानादि में यतना है। प्रश्न – यतनापूर्वक स्नान करना शुभभाव का कारण है, इसकी प्रामाणिकता क्या है ? उत्तर - इसमें अनुभव प्रमाण है। यतनापूर्वक स्नान करने से शुभ अध्यवसाय होता हैयह बुद्धिशालियों को अनुभव सिद्ध है।
गृहकार्यों में आरम्भ आदि कार्य करने वाले गृहस्थ को जिनपूजा में आरम्भ होता है- ऐसा जानकर उसमें स्नान आदि का त्याग करना उचित नहीं है , क्योंकि इससे लोक में जिनशासन की निन्दा और अबोधि (सम्यक्त्व की अप्राप्ति)- ये दो दोष आते हैं।
स्नान किए बिना पूजा करने से शास्त्र-विधि का निषेध होता है और लोक में जिनशासन की निन्दा होती है, इस निन्दा में कारण बनने वाले को भवान्तर में जिन-शासन की प्राप्ति नहीं होती है, इसलिए स्नान आदि करके शुद्ध वस्त्र पहनकर ही पूजा करनी चाहिए।
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