SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावक को परिभाषित करते हुए एलाचार्य मुनिश्री विद्यानन्दजी लिखते हैंश्रावक, अर्थात् गुरूमुख से उपदेश सुनकर विचारपूर्वक आचार करने वाला श्रावक कहलाता है। आचार्य आनन्दऋषिजी कहते हैं कि पाँच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों- इन बारह व्रतों का जो निष्ठापूर्वक पालन करता है, वह उत्कृष्ट श्रावक है। नरेन्द्र प्रवचन-विधि में मुनि नरेन्द्रविजयजी (नवल) ने श्रावक शब्द की व्याख्या करते हुए बताया है 'श्रा', जो तत्त्व-चिन्तन द्वारा अपनी श्रद्धालुता को दृढ़ करता है, 'व', जो निरन्तर सत्पात्रों में धनरूपी बीज का वपन करता है, 'क', जो शुद्ध साधु सत्गुरुदेव की सेवादि क्रिया करके कर्म-धूलि को दूर फेंकता है, उसे उत्तम श्रावक कहते हैं। आचार्य हरिभद्र ने श्रावकधर्मविधि-प्रकरण में कहा है कि परलोक-हितकारी जिन-वाणी को जो सजगता से, सम्यक् प्रकार से श्रवण करता है, उसके अति तीव्र ज्ञानावरणीय घातीकर्मों का विनाश होने से उत्कृष्ट श्रावक कहा गया है। शाब्दिक-विवेचना करने पर श्रावक शब्द के कई अर्थ अभिव्यक्त होते हैं, परन्तु वास्तव में गृहस्थ-वर्ग में हर पुरुष को श्रावक शब्द से सम्बोधित किया जाता है, यहाँ तक कि जन्मते बच्चे के लिए भी श्रावक शब्द का प्रयोग करते हुए कहते हैं कि आज एक श्रावक का जन्म हुआ, परन्तु जन्म लेने मात्र से ही कोई श्रावक नहीं होता। आप्तपुरुषों के द्वारा बताए गए मार्ग का जो आचरण करता है, वास्तव में वही श्रावक है, अतः श्रावक की योग्यता को प्राप्त कर उसे आचरण में लाने बिना श्रावक का सम्बोधन लगा लेना, यह भी मिथ्यात्व का ही परिचायक है। श्रमण के लिए भी कहा जा सकता है कि वास्तव में वही श्रमण है, जो सर्वविरति का सम्पूर्ण रूप से जिनाज्ञानुसार पालन करता है। उसी प्रकार, श्रावक भी वही है, जो जिनाज्ञानुसार नैतिक, आध्यात्मिक एवं धार्मिक जीवन जीता है। ये गुण जीवन में आत्मसात् होने पर ही अपने नाम के पूर्व श्रावक शब्द का विशेषण प्रयुक्त करना चाहिए। तीर्थंकर 1985, श्रावकाचार विशेषांक(मार्च-अप्रैल) - पृ. 3 तीर्थकर 1985, श्रावकाचार विशेषांक(मार्च-अप्रैल)- पृ. सं. 53 * नरेन्द्र प्रवचननिधि – मुनि नरेन्द्रविजय 'नवल' - पृ. सं. 5 'धर्मविधि-प्रकरण - हरिभद्रसूरि - गाथा-2 86 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy