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________________ और आहार दोनों हैं । जब कोई भी कंद या मूल जमीन से निकालते हैं तो वह पौधा संपूर्ण रूप से नष्ट हो जाता है। इनको खाने से उस पौधे का ही नहीं, बल्कि उसकी प्रजाति के भी समाप्त होने का भय रहता है । यह ठीक वैसा ही है, जैसे एक स्त्री की हत्या में जितना दोष होता है उसकी अपेक्षा एक गर्भवती स्त्री की हत्या में अनेक गुना दोष होता है, क्योंकि उसके गर्भ में स्थित बालक से जो वंश-परम्परा चलती, वह पूरी तरह से नष्ट हो जाती है, अर्थात् उसके वंश को ही समाप्त कर दिया जाता है। फल को तोड़ने से भी अधिक पाप कोपल ( नई पत्तियाँ) को तोड़ने में है, क्योंकि ऐसा करने से उस पौधे की बढ़ोतरी (Progress) ही रुक जाती है। जड़ या मूल (Root) को खत्म करना, संपूर्ण रूप से नष्ट करना है । वस्तुतः, जहाँ फरमन्टेशन होता है, वहाँ जीवों की उत्पत्ति और मरण का क्रम चलता है, यह ध्यान रखना है कि — जीवोत्पत्ति जहाँ है, वहाँ सभी वस्तुएं अभक्ष्य हैं। किसी भी भक्ष्य वस्तु में जब फरमन्टेशन प्रारंभ हो जाता है, तब वह अभक्ष्य हो जाती है । जिन चीजों के खाने से तमोगुण की वृद्धि होती है, हिंसा, रोग, मूर्च्छा, मृत्यु आदि होने की संभावना होती है, वे पदार्थ खाने योग्य न होने से अभक्ष्य कहे जाते हैं । जैनदर्शन में वर्त्तमान परम्परा में प्रचलित बाइस प्रकार के अभक्ष्य पदार्थों की सर्वप्रथम चर्चा हमें नेमीचन्द्रसूरिकृत (बारहवीं शती) प्रवचनसारोद्धार 10 में प्राप्त होती है। स्वोपज्ञटीका में इसका कुछ विस्तृत वर्णन भी प्रतिपादित हुआ है। इसके साथ ही, श्रावक के अतिचारसूत्र में बाईस प्रकार के अभक्ष्यों का भी उल्लेख है, जिनका त्याग श्रावक एवं साधक को करना चाहिए। ये बाईस अभक्ष्य निम्न हैं 40 पंचबरि चउविगई हिम विस करगे य सव्व मट्टी य रणी-भोयगं चिय बहुवीय अणंत संधाणं । । छोलवडा वायंगण अमुणिअनामाणि फुल्ल - फलयाणि तुच्छफलं चविय रसं वज्जह वज्जाणि बावीसं ।। पाक्षिक अतिचार सातवें भोगोपभोग व्रत में । 41 64 Jain Education International • प्रवचनसारोद्धार, गा. 4/245/46 - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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