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आहार है, जो शरीर के पोषण के साथ-साथ मन के भावों को भी प्रभावित करने का कार्य करता है। सात्विकआहार जिस प्रकार साधना के लिए सहायक है, वैस ही तामसिक एवं अभक्ष्य आहार मन के भावों में विकृति पैदा करते हैं, वे साधना के मार्ग में बाधक हैं। आहार में भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक नहीं रखने के परिणामस्वरूप ही शरीर रोगों से ग्रसित होने लगता है और मनोविकृतियों का जन्म होता है, इसीलिए जैनदर्शन के अनुसार, अभक्ष्य आहार भी मांसाहार की तरह ही अग्राह्य है, अतः उसका भी त्याग करना चाहिए।
हमें आहार-संज्ञा में यह भी विवेक रखना चाहिए कि किस वस्तु के बाद क्या खाया जाए, अन्यथा भक्ष्य आहार भी खाद्य-वस्तुओं के क्रम की अनियमितता के कारण अभक्ष्य हो जाएगा। आयुर्वेद के मुख्य ग्रन्थ चरकसंहिता में लिखा है -प्राणियों के लिए अन्न ही प्राण होता है, किन्तु अविधिपूर्वक उसका सेवन किया जाए तो वही प्राणों को नष्ट करने वाला विष बन जाता है। विधि, मात्रा एवं युक्तिपूर्वक उचित मात्रा में खाया गया अन्न रसायन का काम करता है।39
अभक्ष्य, अर्थात् जो खाने योग्य न हो। जिसमें फरमन्टेशन (Fermentation) की संभावना हो, जिसमें जीवोत्पत्ति तीव्र गति से होती हो, वे पदार्थ अभक्ष्य कहलाते हैं। वस्तुतः, हम देखते हैं कि कन्द-मूल अनन्तकाय वनस्पति हैं जिनमें एक शरीर में अनन्त जीवों का जीवन-चक्र एक साथ चलता है। जब उनको पकाते हैं, खाते हैं, या सुखाते हैं, तो उन सभी जीवों का मरण हो जाता है। यदि उबले आलू को सुबह से शाम तक रखते हैं तो उसमें भी फरमन्टेशन शीघ्रता से होने लगता है। जहाँ फरमन्टेशन होता है, वहाँ जीवोत्पत्ति निश्चित रूप से होती है।
इसी प्रकार, कोई भी कंद या मूल अभक्ष्य है, क्योंकि जैनदर्शन के अनुसार वह जीवों का पिण्ड है और एक साथ अनन्त जीवों का नाश धार्मिक-दृष्टि से उचित नहीं, पर नैतिकतास्वरूप हम यह भी कह सकते हैं कि कंद या मूल पौधों का आधार
3 प्राणाः प्राणमृतामन्नं तदयुक्ता हिनस्त्यशन्। विषं प्राणहरं तच्च युक्ति युक्तं रसायनम् ।। - चरक संहिता 24/60
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