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________________ 529 शारीरिक अशुचिता का चिंतन करना चाहिए। 115 ज्ञाताधर्मकथा के अनुसार - मल्लिकुमारी (उन्नीसवें तीर्थकर) ने शरीर की अशुचिता के माध्यम से विवाह करने के लिए आए हुए राजकुमारों को वैराग्यवासित किया था।16 उत्तराध्ययनसूत्र में शरीर को रोगों एवं व्याधियों का घर कहा है। इस प्रकार, अशुचिता की भावना का प्रयोजन शरीर की अपवित्रता का बोध कराकर आत्मा को देह के ममत्व से मुक्त करना है। देह का आकर्षण कम होने पर व्यक्ति का ध्यान आत्मा की ओर जाता है। वह अन्तर्मुखी होकर कर्मबंधन से बचने का प्रयास करता है। वस्तुतः, अशुचि-भावना के माध्यम से हम स्वशरीर पर घृणा के भाव रखेंगे, तो हमें दूसरों के प्रति घृणा उत्पन्न ही नहीं होगी, क्योंकि दूसरों की अपेक्षा ज्यादा गंदगी तो हमारे (स्वशरीर) में दिखाई दे रही है। स्वयं के पास ही अशुचि ज्यादा है, इसका ज्ञान हो जाए तो किसी भी पर पदार्थ के प्रति घृणा का भाव उत्पन्न नहीं होगा और धीरे-धीरे विचिकित्सा समाप्त हो जाएगी। ध्यान के माध्यम से - विचिकित्सा पर विजय ध्यान के माध्यम से की जा सकती है। ध्यान में बाह्य-वस्तु से नाता टूट जाता है। मन एकाग्र, आत्मलीन और अन्तर्मुखी हो जाता है। ध्यान में मात्र आत्मदर्शन के सिवाय अन्य परपदार्थ दिखाई नहीं देते हैं। ध्यानावस्था में व्यक्ति, वस्तु और अन्य पर न तो द्वेष होता है, न राग होता है। इस स्थिति में घृणादि के भाव नहीं हो सकते, अतः ध्यान विचिकित्सा को दूर करने की श्रेष्ठ चिकित्सा है। द्रव्यसंग्रहटीका में कहा गया है –निश्चय से तो निर्विचिकित्सागुण के बल से समस्त राग-द्वेषजन्य आदि विकल्परूप तरंगों का त्याग करके निर्मल 11 प्रशमरति, 155 I16 ज्ञाताधर्मकथा, आठवाँ अध्ययन 117 उत्तराध्ययनसूत्र -10/27 एवं 19/14 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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