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जा सकता है, पर जो भावरूपेण विचिकित्सा मन में बैठ जाती है, उसे हटाने में थोड़ा परिश्रम लगता है। विशेष प्रकार के ध्यान, एकत्व - स्वरूप और अशुचि - भावना का स्मरण करके ही भावविचिकित्सा को हटाने में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
आगे हम विचिकित्सा पर किस प्रकार विजय प्राप्त की जा सकती है, इसकी चर्चा करेंगे।
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विचिकित्सा पर विजय कैसे ?
सजीव अथवा अजीव द्रव्यों के प्रति घृणा / अरुचि को विचिकित्सा (जुगुप्सा) संज्ञा कहते हैं, जो मोहनीय कर्म के कारण उत्पन्न होती है । जीव का देह के प्रति प्रगाढ़ आकर्षण होता है, उससे विमुक्ति पांना अति दुष्कर है, जब तक देह पर आसक्ति बनी रहेगी, तब तक राग और द्वेष की दृष्टि भी बनी रहेगी, व्यक्ति किसी रागवश ममत्व और किसी से द्वेषवश घृणा करता रहेगा, अतः एक आध्यात्मिकदृष्टि का विकास करके हम विचिकित्सा पर विजय प्राप्त कर सकते हैं ।
आध्यात्मिक - विकास के दसवें सोपान, जिसे पारिभाषिक शब्दावली में ‘सूक्ष्मसम्पराय-गुणस्थान' कहा जाता है, उसके अनुसार, अन्य सभी कषायों के क्षय या उपशम हो जाने पर भी सूक्ष्म लोभकषाय का उदय रहता है और वह सूक्ष्म लोभ देह के प्रति आसक्ति-रूप होता है, अतः देहासक्ति से मुक्त होने के लिए 'अशुचिभावना' का चिन्तन अवश्य करना चाहिए ।
स्वशरीर की अशुचिता ( अपवित्रता) का चिन्तन करना अशुचि - भावना है। इस भावना के परिप्रेक्ष्य में उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है – “यह शरीर अनित्य है, अशुचिरूप और अशुचि से ही उत्पन्न हुआ है । 114
इसी सम्बन्ध में प्रशमरति में आचार्य उमास्वाति ने भी कहा है - यह शरीर पवित्र को भी अपवित्र बनाता है, इसकी आदि एवं उत्तर - अवस्था अशुचिरूप है, अतः
114 इमं सरीरं अणिच्चं असुइं असुइसंभवं । उत्तराध्ययनसूत्र, गाथा - 19 / 13
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