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________________ 527 1. द्रव्यविचिकित्सा - "साधुओं के शरीर के विष्ठामल, मूत्र, कफ, नाक का मल, चाम, हाड़, रूधि, मांस, लोही, वमन, सर्व अंगों का मल, लार इत्यादि मलों को देखकर उनसे घृणा करना द्रव्य-विचिकित्सा है। 110 द्रव्यविचिकित्सा से तात्पर्य, बाह्यवस्तु और वातावरण को देखकर जो घृणा का भाव उत्पन्न होता है, वह द्रव्यविचिकित्सा है। मलिन वस्त्र, मलिन क्षेत्र, गृहादि में मलिनता, दरिद्रता देखकर घृणा के भाव जाग्रत होते हैं। वस्तुतः, द्रव्यविचिकित्सा ही भावविचिकित्सा को उत्पन्न करती है। 2. भावविचिकित्सा - मूलाचार ग्रंथ में कहा गया है - क्षुधादि बाईस परीषहों में संक्लेश-परिणाम करना भावविचिकित्सा है, अर्थात् हृदय में घृणा के भावों का होना भावविचिकित्सा है। भावविचिकित्सा, वस्तुतः अपने में अपनी प्रशंसा द्वारा अपने गुणों की उत्कर्षता के साथ-साथ जो अन्य के गुणों के अपकर्ष में बुद्धि होती है, उसे भावविचिकित्सा कहते हैं।12 भावविचिकित्सा के कारण व्यक्ति यह सोचता है कि जैनमत में सब अच्छी बातें हैं, परंतु वस्त्र के आवरण से रहितता अर्थात् नग्नता और जलस्नान आदि का न करना -यही एक दूषण है।113 विचिकित्सा (जुगुप्सा) द्रव्य से हो या भाव से -दोनों को सम्यक्दर्शन का अतिचार माना गया है। द्रव्यविचिकित्सा को साफ-सफाई आदि के प्रयासों से हटाया 110 उच्चारं पस्सवणं खेलं सिंघाणयं च चम्मट्ठी। पूयं च मंमसोणिदवंतं जल्लादि साधूणं।- वही, गा.253 "खुदादिए भावविदिर्गिछा। – मूलाचार, गाथा 252 12आत्मन्यात्मगुणोत्कर्षबुद्धयां स्वात्मप्रशंसनात् परत्राप्यपकर्षेषु बुद्धिर्विचिकित्सता स्मृता। - पंचाध्यायी, उत्तरार्द्ध, श्लोक 578 11 यत्पुनजैनसमये सर्व समीचीनं परं किन्तु वस्त्राप्रवरणं जलस्नानादिकं च न कुर्वन्ति तदैव दूषणम्। -द्रव्यसंग्रह टीका, गाथा -41/172/11 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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