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के पाँच अतिचार बतलाये गये है तथा योगशास्त्र और सम्यक्त्वसप्तति में इन्हीं को ‘दूषण' कहा गया है। चल, मल और अगाढ़ दोषों में जुगुप्सा मलदोष है, जो यथार्थ दृष्टिकोण की निर्मलता को प्रभावित करती है। पंडित आशाधरजी कहते हैं -क्रोध आदि के वश रत्नत्रयरूप धर्म में साधन, किन्तु स्वभाव से ही अपवित्र शरीर आदि में जो ग्लानि होती है, वह विचिकित्सा है। यह सम्यग्दर्शन आदि के प्रभाव में अरुचि रूप होने से सम्यग्दर्शन का मल-दोष है। 07.
जो मोक्ष में बाधक बने, वह साधक के लिए सदा त्याज्य है, क्योंकि विचिकित्सा का भाव व्यक्ति को विचलित करता है, पर से जोड़ता है और समभाव में स्थिर नहीं होने देता। विचिकित्सा से चित्त विचलित हो जाता है और घृणादि के भाव मन के परिणामों को भी मलिन करते हैं, इसलिए जुगुप्सा अनावश्यक है।
समयसार में कहा है -जो जीव सभी वस्तु-धर्मों में ग्लानि नहीं करता है, वह जीव निश्चय कर विचिकित्सादोषरहित सम्यग्दृष्टि जीव होता है।08
विचिकित्सा के प्रकार -
मूलाचार ग्रंथ में विचिकित्सा के दो प्रकार बताए गए हैं -
1. द्रव्यविचिकित्सा,
2. भावविचिकित्सा
105 शंका कांक्षा विचिकित्सा मिथ्यादृष्टिप्रंशसनम्।
तत्संस्तवश्च पंचापि सम्यक्त्वं दूषयन्त्यलम् ।। - योगशास्त्र, 2/17 106 दूसिज्जइ जेहि इमं, ते दोसा पंच वज्जणिज्जा उ .
संका कंखा विगिच्छा, परतित्थिपसंससंयवणं।। - सम्यक्त्वसप्तति, गाथा 28 107 धर्मामृत, आनागार, द्वितीयोध्याय, श्लोक 79 108 जो ण करेदि जुगुप्पं चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं। .
सो खलु णिव्विदिगिच्छो सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो।। - समयसार, गाथा 231 109 विदिगिच्छा वि य दुविहा दव्वे भावे य होइ णायव्वा । – मूलाचार, गाथा 252
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