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________________ "ऋते भवम् आर्त्तम्" इस नियुक्ति के अनुसार, ऋत अर्थात् दुःख के निमित्त के कारण संक्लिष्ट अध्यवसाय का नाम आर्त्तध्यान है । आर्त्तध्यान : 'अर्त्ति' शब्द का अर्थ चिन्ता, पीड़ा, शोक, दुःख, कष्ट आदि हैं। इसके सम्बन्ध से जो ध्यान होता है, वह आर्त्तध्यान है। जैनाचार्यो ने ध्यान को 'चित्तनिरोध' कहा है । ” चित्त का निरोध हो जाना ही ध्यान है । 'ध्यान' शब्द का सामान्य अर्थ चेतना का किसी एक विषय या बिन्दु पर केन्द्रित होना है। चेतना जिस विषय पर केन्द्रित होती है, वह प्रशस्त या अप्रशस्त - दोनों ही हो सकता है। इस हेतु से ध्यान के चार प्रकार कहे गए हैं – 1. आर्त्तध्यान, 2. रौद्रध्यान, 3. धर्मध्यान और 4. शुक्लध्यान । तत्त्वार्थसूत्र में 'परेमोक्षहेतु: सूत्र से स्पष्ट होता है कि प्रारंभ के दो ध्यान आर्त्त और रौद्र-ध्यान संसार के हेतु या संसार बढ़ाने वाले हैं और परे अर्थात् अन्त के दो ध्यान (धर्मध्यान और शुक्लध्यान) मोक्ष के कारण हैं । 79 80 प्रस्तुत प्रसंग में संसारवर्ती सकर्मी जीवों को शुभ या अशुभ कर्मों के उदय से क्रमशः इष्ट का संयोग और अनिष्ट का वियोग तथा इष्ट का वियोग और अनिष्ट का संयोग अनादिकाल से होता आया है। इस संयोग-वियोग के कारणों से मन में संकल्प-विकल्प उत्पन्न होते ही रहते हैं । इसे ही 'आर्त्तध्यान' कहते हैं और इस आर्त्तध्यान का जो भाव है, वही शोक है । दूसरे शब्दों में कहें, तो चेतना राग या आसक्ति में डूबकर किसी वस्तु और उसकी उपलब्धि की आशा पर केन्द्रित होती है, तो उसे आर्त्तध्यान कहा जा सकता 77 1) 2) 78 उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् । - उत्तराध्ययनसूत्र, 30 / 35 80 तत्त्वार्थसूत्र 9/27 ध्यानशतक -2 चत्तारि झाणा पण्णत्ता, तं जहा—अट्ठेझाणे, रोद्देझाणे, धम्मेझाणे, सुक्केझाणे - भगवती, श. 25, 3.7, सूत्र 237 ध्यानशतक - 5 791) आर्त्तरौद्रधर्मशुक्लानि, – तत्त्वार्थसूत्र 9/29 3) - जैन धर्म और तान्त्रिक साधना, - डॉ. सागरमल जैन, पृ. 258 तत्त्वार्थसूत्र- 9/30 512 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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