________________
513
है। अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति की आकांक्षा या प्राप्त वस्तु के वियोग की संभावना की चिन्ता में चित्त का डूबना आर्तध्यान है।
जिनेश्वर भगवान् ने इसके मुख्य चार भेद कहे हैं32 -
1. अमनोज्ञ अनिष्ट संयोग – अनिष्ट अथवा अप्रिय (व्यक्ति, वस्तु आदि) का संयोग होने पर उसके वियोग के लिए बार-बार चिन्ता करना।
2. मनोज्ञ इष्ट संयोग - इष्ट का संयोग होने पर उसका वियोग न होने की बार-बार चिन्ता करना।
3. आतंक - ज्वर, कुष्ट आदि अनेक प्रकार के रोगों की प्राप्ति होने पर, अथवा प्रतिकूल परिस्थिति आने पर यह विचार होता है कि इसका शीघ्र नाश होइस प्रकार दुःख या कष्ट आने पर उसके दूर होने की बार-बार चिन्ता करना ।
___5. भोगेच्छा - अनुभव किए अथवा भोगे हुए काम-भोगों के वियोग न होने की वांछा करना और उसका विचार करते रहना।
मूलतः आर्तध्यान वर्तमान के सम्बन्ध में तो होता ही है; किन्तु यह भविष्य की आशंका-कुशंकाओं के अनवरत विचार के रूप में भी होता है जोकि शोकस्वरूप है। शरीर और सांसारिक भोगों आदि के विषय में होने से यह संसार बढ़ाने वाला हैं, अतः इसे दुर्ध्यान कहा गया है।
वस्तुतः, यह स्पष्ट है कि उत्तम समाधि की प्राप्ति सातवें (अप्रमत्तसंयत) गुणस्थान में होती है, अतः आर्त्तध्यान सातवें गुणस्थान से पहले-पहले, अर्थात् छठवें प्रमत्तसंयत-गुणस्थान तक होता है। स्थानांगसूत्र में आर्तध्यान के निम्न चार लक्षणों
॥ तत्त्वार्थसूत्र –9/31 82 1) अट्टे झाणे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा -अमणुण्णसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओग संति समणा
गए यावि भवति .. ................| - भगवती, श.25, उ.7, सूत्र 238
तत्त्वार्थसूत्र -9/32 3) स्थानांगसूत्र -4/60-72 83 स्थानांगसूत्र -4/60-72
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org