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________________ 459 अर्थात्, वस्तु का स्वभाव धर्म है। क्षमा आदि भावों की अपेक्षा से वह दस प्रकार का है। रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) भी धर्म है तथा जीवों की रक्षा करना भी धर्म है। ___ सामान्यतः, धर्म शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। इस संसार में जो भी पदार्थ हैं, उन सबका अपना-अपना स्वभाव है, जैसे- जल का धर्म है -शीतलता, आग का धर्म है -जलाना। यहाँ धर्म से हमारा तात्पर्य वस्तु के स्वाभाविक-गुणों से होता है, किन्तु जब यह कहा जाता है कि दुःखी एवं पीड़ितजनों की सेवा करना मनुष्य का धर्म है, अथवा गुरू की आज्ञा का पालन करना शिष्य का धर्म है, तो यहाँ धर्म का अर्थ होता है- कर्त्तव्य या दायित्व। इसी प्रकार, जब हम यह कहते हैं कि मेरा धर्म जैन है, या उसका धर्म ईसाई है, तो यहाँ धर्म का मतलब किसी दिव्यसत्ता-सिद्धान्त या साधना-पद्धति के लिए हमारी श्रद्धा, आस्था या विश्वास से है। प्रायः हम धर्म से यही तीसरा अर्थ लेते हैं, जबकि यह तीसरा अर्थ धर्म का अभिरूढ़ अर्थ है, वास्तविक अर्थ नहीं है। सच्चा धर्म सिर्फ धर्म है, वह न हिन्दू होता है न जैन, न बौद्ध, न ईसाई, न इस्लाम। हमारा सच्चा धर्म तो वही है, जो हमारा निज स्वभाव है, इसीलिए जैन आचार्यों ने 'वस्थु सहावो धम्मो49 के रूप में धर्म को परिभाषित किया है। प्रत्येक के लिए जो उसका निज-गुण है, स्व-स्वभाव है, वही धर्म है। स्व-स्वभाव से भिन्न जो भी होगा, वह उसके लिए धर्म नहीं, अधर्म ही होगा। 1. वस्तु का स्वभाव धर्म है - वस्तुतः, जल का स्वभाव है -शीतलता। जल को आग पर तपा-तपाकर कितना ही गर्म कर सकते हैं, किन्तु यदि उस गर्म जल में हाथ को डालें, तो हाथ जल जाएगा, यानी तीव्र अग्नि के सम्पर्क में आने पर पानी आग जैसे स्वभाव वाला हो जाता है। यह पानी का स्वभाव नहीं, विभाव है, विकृति है, फिर भी, उस गर्म 48 धर्म का मर्म, -डॉ. सागरमल जैन, पृ. 14 49 भावसंग्रह, गाथा-373 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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