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धर्म का सम्यक् स्वरूप
सम्यक् शब्द का अर्थ है ठीक, सही, यथार्थ या सत्य । जैनदर्शन में धर्म के सम्यक् स्वरूप को स्पष्ट करने वालें अनेक सूत्र और गाथाएं हैं। वे जहां एक ओर धर्म के बाह्य-स्वरूप पर प्रकाश डालती हैं, वहीं वे दूसरी ओर, धर्म की अन्तर्वस्तु को भी स्पष्ट करती हैं ।
अज्ञात और अदृश्य शक्तियों के बारे में जानने की लालसा मानव में आदिकाल से ही रही है । पाश्चात्य विद्वानों की कल्पना है कि मानव की इसी रुचि ने धर्म को जन्म दिया, किन्तु यह उचित नहीं है। आदिमयुग से लेकर सभ्य समाजों तक हमें धर्म, धार्मिक क्रियाकाण्ड और ईश्वर सम्बन्धी विचार हमें देखने को मिलते हैं। भारत जैसे धर्मपरायण देश में तो प्रातःकाल उठने से लेकर रात्रि तक तथा जन्म से मृत्यु तक अनेक धार्मिक - क्रियाएं सम्पन्न की जाती हैं । उन क्रियाओं में, चाहे वे वैयक्तिक हों, सामाजिक या पारिवारिक हों, कहीं-न-कहीं धर्म-भावना निहित होती है। सामान्यतया, मानव की सम्पूर्ण क्रियाओं का केन्द्र धर्म माना गया है और जीवन का अन्तिम लक्ष्य धर्म को अर्जित कर मोक्ष को प्राप्त करना ही है, किन्तु जैनचिन्तकों का मानना है कि धर्म ही एक ऐसा पवित्र अनुष्ठान है, जिससे आत्मा की विशुद्धि होती है। 46
धर्म के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा प्रत्एक मानव में पाई जाती है। धर्म क्या है ? इसका स्वरूप कैसा है ? इन प्रश्नों के आज तक अनेक उत्तर दिए गए हैं, किन्तु जैन - आचार्यों ने धर्म का जो स्वरूप एवं उसके लक्षण बताए हैं, वे विलक्षण हैं। जिनमें से मुख्य चार लक्षणों को स्वामी कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा 7 में संगृहीत किया गया है, जो धर्म के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं ।
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'एगा धम्मपडिमा, जं से आया पज्जवजाए ।
'कार्तिकेयानुप्रेक्षा - 478
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धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो । रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो ।।
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- स्थानांगसूत्र 1/1/40
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