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आचार प्रणालिका हमारे जीवन को पाप की कालिमा से बचाती है; जीवनगत बुराइयों को दूर करती है और जिससे कल्याण का पथ प्रशस्त होता है, वही धर्म है। इस व्यापक परिभाषा से जैनागमप्रतिपादित धर्म सार्वभौम धर्म का दर्जा प्राप्त कर लेता है। जिससे आत्मा का मंगल हो, वह आत्म-धर्म है। जिससे राष्ट्र का मंगल हो, वह राष्ट्रधर्म है और जिस आचार-प्रणाली से विश्व का मंगल हो, वह विश्वधर्म है। इसी प्रकार, यह परिभाषा सभी समाजों और वर्गों पर लागू होती है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा गया है -
धम्मो वत्थु सहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो
रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो।। अर्थात्, वस्तु-स्वभाव धर्म है, क्षमादि दशविध धर्म हैं, रत्नत्रय धर्म हैं और जीवों की रक्षा करना धर्म है। यह धर्म की एक व्यापक परिभाषा है। धर्म की इस परिभाषा की व्याख्या हम अगले पृष्ठों में विस्तृत रूप से करेंगे।
45 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 478
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