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________________ 455 4. धर्म कर्त्तव्य की विवेचना करता है - जैन परम्परा में अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म को उत्कृष्ट मंगल के रूप में भी परिभाषित किया गया है। इस प्रकार, धर्म को विश्वकल्याणकारक बताया गया है। महाभारत में धर्म की परिभाषा इस रूप में की गई है कि जो प्रजा को धारण करता है, अथवा जिससे समस्त प्रजा (समाज) का धारण या संरक्षण होता है, वही धर्म है। गीता में धर्मशास्त्र को कार्याकार्य अथवा कर्त्तव्याकर्त्तव्य की व्यवस्था देने वाला बताया गया है। उपर्युक्त परिभाषाओं की चर्चा डॉ. सागरमलजी जैन ने अपने शोध-प्रबंध में भी की है। 5. धर्म परम श्रेय की विवेचना करता है - दशवैकालिकनियुक्ति में धर्म को भाव-मंगल और सिद्धि (श्रेय) का कारण कहा है। आचारांगनियुक्ति में भी धर्म का अंतिम लक्ष्य निर्वाण बताया गया है। उसमें कहा गया है कि लोक का सार धर्म है, धर्म का सार ज्ञान है, ज्ञान का सार संयम (सदाचार) है और संयम का सार निर्वाण है। इस प्रकार, धर्म को परमश्रेय का उद्बोधक माना गया है। कठोपनिषद् में भी श्रेय और प्रेय के विवेचन में बताया गया है कि जो श्रेय का चयन करता है, वही विद्वान् है। आचार्य शुभचन्द्र ने धर्म को भौतिक एवं आध्यात्मिक-अभ्युदय का साधक बताया है। जैन-परम्परा में धर्म की एक परिभाषा वस्तु-स्वभाव के रूप में भी की गई है। 39 जिससे स्वस्वभाव में अवस्थिति और विभावदशा का परित्याग होता है, वह धर्म है, क्योंकि स्वस्वभाव ही 32 धम्मो मंगल मुक्किटुं, अहिंसा संजमो तवो। - दशवैकालिकसूत्र, 1/1 33 अबन्धूनामसौ बन्धुरसखीनामसौ सखा।। अनाथानामसौ नाथो, धर्मो विश्वैकवत्सलः।। - योगशास्त्र, 4/100 * महाभारत, कर्णपर्व- 69/59 35 गीता- 16/24 36 आचारांगनियुक्ति, 244 37 कठोपनिषद्- 2/1/2 38 अमोलसूक्ति, रत्नाकर, पृ. 27 39 अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड-4, पृ. 2663 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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