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3.
इस प्रकार, आहार का प्रेरक-तत्त्व समान होने पर भी आहार के प्रति सामान्य
प्राणी व्यवहार और मानवीय व्यवहार में अंतर होता है। 2. मनुष्य की दूसरी विशेषता यह है कि उसमें आत्मसजगता होती है। वह क्या
कर रहा है ? वह यह जान सकता है, विचार कर सकता है, जबकि पशु में आत्मचेतना न होकर भी वह अपनी प्राणीय-प्रकृति के आधार पर व्यवहार करता है। उसका व्यवहार अंधप्रवृत्ति है, जबकि मनुष्य की प्रवृत्ति में आत्मसजगता होती है। इस प्रकार, प्राणीय-व्यवहार अंधप्रवृत्ति है, जबकि मानवीय व्यवहार आत्म-सजगता पर आधारित होता है। यदि मनुष्य अपनी आत्म-सजगता और विवेकशीलता का आधार नहीं लेता है, तो उसका आचरण या व्यवहार भी हेय की कोटि में चला जाता है। मनुष्य और पशु-जीवन के अंतर का तीसरा आधार संयम की शक्ति है। मनुष्य द्वारा आत्मनियंत्रण संभव है, परन्तु पशु में आत्मनियंत्रण की प्रवृत्ति नहीं होती है। मनुष्य जीवन-मूल्यों में हेय का त्याग और उपादेय को ग्रहण कर सकता है। वह विवेक और शांति के आधार पर उनके लिए क्या श्रेयः है और क्या श्रेयः नहीं है -यह निर्णय लेने में समर्थ होता है, जबकि पशु में ऐसे संयम के सामर्थ्य का अभाव होता है।
इस प्रकार, उपर्युक्त तीन गुणों के आधार पर मनुष्य लोक-संज्ञा पर विजय प्राप्त कर सकता है और अपने आचार एवं व्यवहार को, उपादेय को प्रासंगिक बना सकता है।
आचारांगसूत्र25 में कहा गया है कि मुनि को लोक-संज्ञा का सर्वदा त्याग करना चाहिए। उसी बात का समर्थन करते हुए उपाध्याय श्री यशोविजयजी द्वारा विरचित ज्ञानसार 26 में अष्टक के माध्यम से लोक-संज्ञा को त्याज्य बताया है। लोक-संज्ञा पर विजय प्राप्त करने के लिए निम्न संकेत दिए हैं।
25 आचारांगसूत्र 3/1/178 26 ज्ञानसार, विवेचनकार श्री भद्रगुप्तविजयजी गणीवर, गाथा, 177-184, पृ. 330
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