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________________ 416 प्राप्तः षष्ठं गुणस्थानं भवदुर्गाद्रिलड घनम्। लोक-संज्ञारतो न यान्मुनिर्लोकोत्तरस्थितिः ।।1।। संसार की विषम पर्वतमालाओं को लांघने जैसा छठवां गुणस्थान प्राप्त लोकोत्तर स्थित मुनि लोकसंज्ञा में रत नहीं होता। उपर्युक्त श्लोक में कहा गया है कि मुनि का मार्ग लोक-मार्ग नहीं है। लोकोत्तर–मार्ग है। लोकमार्ग और लोकोत्तर मार्ग में जमीन-आसमान का अंतर है। लोकमार्ग मिथ्या धारणाओं पर चलता है, जबकि लोकोत्तर-मार्ग केवलज्ञानी वीतराग भगवंत द्वारा निर्देशित निर्भय मार्ग है, अतः मुनि को लोकोत्तर मार्ग का परित्याग कर लौकिक-मार्ग को कदापि नहीं अपनाना चाहिए। क्योंकि लोक-संज्ञा दुबारा संसार के विषम पहाड़ों पर चढ़ाई करने वाली है। मुनि यह संकल्प करे -मैं तो अपना छठवां गुणस्थान ही कायम रखूगा और सातवें-आठवें गुणस्थान पर पहुंचने के लिए प्रयत्न करता रहूंगा। इस प्रकार, मुनि लोकसंज्ञा से अपने पतन को बचा सकता है। यथा चिंतामणिं दत्ते बढरो बदरीकलैः । हहा जहाति सद्धर्म तथैव जनरंजनैः ।।2।। जिस तरह कोई मूर्ख बेर के बदले में चिन्तामणि रत्न देता है, ठीक उसी तरह कोई मूढ़ लोक-रंजनार्थ अपने सद्धर्म को तज देता है। __ अर्थात्, यदि तुम सद्धर्म के माध्यम से लोक-प्रशंसा पाना चाहते हो, तो वह कृत्य चिंतामणि रत्न के बदले बेर खरीदने जैसा है, क्योंकि सदधर्म का फल लोक-प्रशंसा नहीं है, बल्कि आत्मा को परमात्मा बनाना है। लोक-संज्ञामहानद्यामनुस्त्रोतोऽनुगा न के। प्रतिस्त्रोतोऽनुगस्त्वेको राजहंसो महामुनिः।।3।। लोक-संज्ञारूपी महानदी के प्रवाह के अनुयायी (प्रवाह की दिशा में बहने वाले) कौन नहीं होते ? अर्थात् अनेक होते हैं, किन्तु विपरीत प्रवाह का अनुयायी (प्रवाह के विपरीत तैरने वाला) राजहंस जैसे मात्र मुनिश्वर ही होते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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