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________________ 414 इस आधार पर हम स्पष्ट रूप से देखते हैं कि प्रथम चार संज्ञाएं -आहार, भय, मैथुन और परिग्रह तथा चार कषाय- क्रोध, मान, माया और लोभ -ये सब मोहनीय-कर्म के उदय से माने गये हैं। इसमें भी मात्र आहार-संज्ञा क्षुधावेदनीय का उदय माना है, शेष को मोहनीयकर्म के विभिन्न रूपों का ही उदय माना है, अतः हमारा यह निर्णय अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है कि लोक-संज्ञा वासनात्मक है और ओघ-संज्ञा ज्ञानात्मक है। जैसा कि भाष्य में माना गया है कि हम विशेष अवबोध नहीं कर सकते, पर उसमें विशेष और सामान्य दोनों कह सकते हैं। लोक-संज्ञा पर विजय कैसे ? यह सत्य है कि लोकसंज्ञा और ओघसंज्ञा मानवीय-जीवन में व्यवहार के प्रेरक तत्त्व के रूप में कार्य करती हैं। लेकिन जैसा कि हमने पूर्व में कहा है कि आहार, निद्रा, भय, मैथुन की जो सामान्य प्रवृत्तियां पशुजगत् एवं मनुष्यजगत् में पायी जाती हैं, उनमें मनुष्य की उपादेयता यही है कि वह इन पाश्विक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखते हुए विवेक के माध्यम से इन्हें परिशोधित करें क्योंकि मानवतावादीदर्शन में मनुष्य एवं पशु -दोनों में तीन बातों में अंतर माना गया है - 1. मनुष्य का व्यवहार विवेकशीलता के आधार पर होता है, जबकि पशु का व्यवहार उसकी मूल प्रवृत्तियों के आधार पर होता है। यह सत्य है कि पशु और मनुष्य -दोनों को आहार चाहिए, किन्तु पशु अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के आधार पर अपने आहार का चयन करता है, जबकि मनुष्य में विवेकशीलता का गुण होने से वह अपने आहार के चयन में स्वंतत्र होता है। मनुष्य यह विचार कर सकता है कि उसे कब, कितना और क्या खाना है और क्या नहीं खाना है ? जबकि पशु प्रकृति से निर्धारित है। वह अपनी प्रकृति के आधार पर ही चयन करता है। पशु में चयन की यह स्वतंत्रता नहीं होती, जो मनुष्य में है। वह अपनी प्रकृति के आधार पर ही अपने आहार को ग्रहण करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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