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________________ 413 जबकि वासनात्मक, अनुभूत्यात्मक संवेदनाएं, लोक-संज्ञा का परिणाम है, क्योंकि ये संज्ञाएँ मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से होती हैं, क्योंकि आगमों के अनुसार लोक-संज्ञा सभी जीवों में पाई जाती है। साररूप में कहें, तो ओघ-संज्ञा ज्ञानरूप है और लोक-संज्ञा वासनारूप है। एक अन्य अपेक्षा से ऐसा भी माना गया है कि सामान्य प्रवृत्ति ओघ-संज्ञा है और विशेष प्रवृत्ति लोक-संज्ञा है। अतः यह निर्णय ही समुचित प्रतीत होता है कि ओघ-संज्ञा विवेक जन्य है और लोक-संज्ञा वासनाजन्य है। इसलिए जैन आचार्यों ने ओघ-संज्ञा को ग्राह्य और लोक-संज्ञा को त्याज्य माना है। यद्यपि आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने संज्ञाओं का जो दशविध विवेचन किया है, उसमें संज्ञाओं को ज्ञानात्मक और संवेगात्मक -दोनों माना है किन्तु कौन सी संज्ञा किस कर्म के उदय से होती है, इसे निम्न रूप से वर्गीकृत किया गया है 24 संज्ञा कर्म क्षुधावेदनीय का उदय 1. आहार 2. भय | 3. मैथुन 4. परिग्रह 5. क्रोध 16. मान 7. माया भयमोहनीय का उदय | वेदमोहनीय का उदय लोभमोहनीय का उदय | क्रोधवेदनीय का उदय | मानवेदनीय का उदय | मायावेदनीय का उदय शारीरिक-मानसिक क्रिया और परिवर्तन हाथ से कौर लेना, मुख का संचलन, आहार की खोज आदि | उद्भ्रान्त दृष्टि, वचनविकार, रोमांच आदि | अंगों का अवलोकन, स्पर्श, कंपन आदि | आसक्तिपूर्वक द्रव्यों का ग्रहण और संग्रह | नेत्रों की रुक्षता, दांत और होठों की फड़कन आदि | अहंकारपूर्वक शरीर की अकड़न | संक्लेशपूर्वक मिथ्या भाषण, छिपाने आदि की | क्रिया। | लोभपूर्वक द्रव्य के ग्रहण और संग्रह की | अभिलाषा। | विशेष अवबोध की क्रिया 8. लोभ लोभवेदनीय का उदय 9. लोक | मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम 10. ओघ | सामान्य अवबोध की क्रिया 24 भगवई, आ.महाप्रज्ञ, जैनविश्वभारती, लाडनूं, श.7,उ.8.सू.161, पृ. 382 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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