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________________ 13. सुख - संज्ञा - (Instinct of Pleasure ) - सातावेदनीय-कर्म के उदय से होने वाले सुखरूप अनुभव को सुखसंज्ञा कहते हैं। जीव की अनुकूलता में सुखानुभूति रूप मनःस्थिति को सुखसंज्ञा कहते हैं । 14. दुःख - संज्ञा - (Instinct of Pain) असातावेदनीय-कर्म के उदय से जो दुःखरूप अनुभव होता है, उसे दुःखसंज्ञा कहते हैं। जीव की प्रतिकूलता में दुःखानुभूति - रूप मनःस्थिति को दुःखसंज्ञा कहते हैं । 15. विचिकित्सा - संज्ञा (Instinct of Suspence/disgust) ज्ञानावरणीय मोहनीय कर्म के उदय से होने वाली चित्तविलुप्तिरूप स्थिति विचिकित्सा-संज्ञा है। जीव का प्रकृति, पुरुष, पदार्थ आदि के प्रति घृणा या अरूचि का भाव विचिकित्सा (जुगुप्सा) संज्ञा है । 16. शोक - संज्ञा (Instinct of Sorrow) - मोहनीय कर्म के उदय से होने वाली विप्रलाप और वैमनस्य-रूप स्थिति अथवा इष्ट के वियोग में, अनिष्ट वस्तु के संयोग में खेद या चिन्ता की स्थिति को शोकसंज्ञा कहते हैं । कौनसी संज्ञा का उदय किस कर्म के उदय अथवा क्षयोपशम से होता है 36 . अशातावेदनीय - कर्म के उदय से । आहारसंज्ञा भयसंज्ञा भयमोहनीय या नोकषायमोहनीय कर्म के उदय से । मैथुनसंज्ञा - वेदमोहनीय कर्म के उदय से । परिग्रहसंज्ञा - लोभमोहनीय कर्म के उदय से । ओघसंज्ञा - मतिज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय के क्षयोपशम से । - Jain Education International 19 - 36 दण्डक - प्रकरण (मुनि मनितसागरजी, पृ.सं. 94 ) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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