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________________ जीवात्मा में (स्व आत्मा) जीव (परिजन), अथवा अजीव (धन-सम्पत्ति) आदि के कारण अहंकार पूर्ण मनःस्थिति को मानसंज्ञा कहते हैं। 9. माया–संज्ञा – (Instinct of Deceit) - ___ जीव की कपट या ढोंगपूर्ण मनःस्थिति को मायासंज्ञा कहते हैं। धर्मामृत (अनगार) में मायासंज्ञा से युक्त व्यक्ति का स्वरूप बताया गया है। जो मन में होता है, वह कहता नहीं है; जो कहता है, वह करता नहीं है- वह मायावी होता है। माया मोहनीय-कर्म के उदय से अशुभ–अध्यवसायपूर्वक मिथ्याभाषण आदि-रूप कुटिल वाक्-व्यापार की प्रवृत्ति को मायासंज्ञा कहते हैं। 10. लोभ-संज्ञा – (Instinct of Greed) - लोभ मोहनीय-कर्म के उदय से सचित् अचित् पदार्थों को प्राप्त करने की लालसा लोभसंज्ञा है। स्थानांगसूत्र में लोभ को आमिषावर्त कहा गया है। जिस प्रकार मांस के लिए गिद्ध आदि पक्षी चक्कर काटते हैं, उसी प्रकार लोभी मनुष्य इष्ट पदार्थों की प्राप्ति के लिए उद्यमशील रहता है। प्रशमरति में लोभ को सब विनाशों का आधार, सब व्यसनों का राजमार्ग बताया है। 11. मोह-संज्ञा – (Instinct of Delusion) - मोहनीय-कर्म के उदय से होने वाली मिथ्यादर्शनरूप विपरीत-वृत्ति मोह-संज्ञा कहलाती है, अथवा जीव की व्यक्ति, वस्तु आदि के प्रति मूर्छा, आसक्ति-रूप मनःस्थिति को मोह-संज्ञा कहते हैं। 12. धर्म-संज्ञा – (Instinct of Religious) - मोहनीय-कर्म के क्षयोपशम से क्षमा आदि धर्मों के सेवनरूप वृत्ति धर्मसंज्ञा है। जीवात्मा की स्वाभाविक करुणा, मैत्री आदि की मनःस्थिति को धर्मसंज्ञा कहते हैं। "ये वाचा स्वमपि स्वान्तं – (धर्मा/अ.6/गा.19) 34 आमिसावतसमाणे लोभे – (ठाणं/ स्थान 4/उ. 4/ सूत्र 653) 35 सर्व विनाशाश्रयिण - (प्र.र. गाथा 29) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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