SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लोकसंज्ञा - मतिज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय के क्षयोपशम से। क्रोधसंज्ञा – क्रोधकषाय-मोहनीयकर्म के उदय से। मानसंज्ञा – मानकषाय-मोहनीयकर्म के उदय से। मायासंज्ञा - मायाकषाय-मोहनीयकर्म के उदय से। लोभसंज्ञा – लोभकषाय-मोहनीयकर्म के उदय से। मोहसंज्ञा – मोहनीयकर्म के उदय से। धर्मसंज्ञा – मोहनीयकर्म के क्षयोपशम से। सुखसंज्ञा – रति नामक नोकषाय-मोहनीयकर्म के उदय से। दुःखसंज्ञा - अरति नामक नोकषाय-मोहनीयकर्म के उदय से। विचिकित्सा/जुगुप्सा-संज्ञा - जुगुप्सा नोकषाय-मोहनीयकर्म के उदय से। शोकसंज्ञा – शोक नामक नोकषाय-मोहनीयकर्म के उदय से। उपर्युक्त संज्ञाएँ स्थावर-एकेन्द्रिय (पृथ्वी, जल, तेजस्, वायु और वनस्पति) जीवों से लेकर वैमानिक देवों तक के सभी जीवों में हीनाधिक-रूप से प्राप्त होती हैं, अतः चार संज्ञाओं में ही धर्म को छोड़कर शेष सभी संज्ञाएं समाहित हो जाती हैं, इसलिए आगमों में आहार, भय, मैथुन और परिग्रह -इन चारों का ही विशेष विवेचन शास्त्रकारों ने किया है। यह स्पष्ट है कि संसारी सभी जीवों में समस्त संज्ञाएँ पायी जाती हैं। धर्मसंज्ञा चारों गतियों में सम्भव तो होती है, किन्तु सभी में नहीं पाई जाती है, तथापि उनमें विशेष अन्तर होता है - 1. देवों में परिग्रहसंज्ञा एवं लोभसंज्ञा की प्रधानता होती है। 2. मनुष्यों में मैथुनसंज्ञा एवं मानसंज्ञा की प्रधानता होती है। 3. तिर्यंचों में आहारसंज्ञा एवं परिग्रहसंज्ञा की प्रधानता होती है। 4. नारकी में भयसंज्ञा तथा क्रोधसंज्ञा की प्रधानता होती है। 37 सव्वेसिं चउ दह वा. सन्ना सव्वे (दण्डक-प्रकरण, गा. 12) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy